सुनाई मैं ने तो मुझ से ख़फ़ा हुए क्यूँ लोग
किसी का नाम मिरी दास्ताँ में था ही नहीं
सलाम आख़िर है अहल-ए-अंजुमन को
ख़ुमार अब ख़त्म अपनी दास्ताँ है
याद मत रखियो ये रूदाद हमारी हरगिज़
हम थे वो ताज-महल 'जौन' जो ढाए भी गए
वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दास्ताँ है