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मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

1806 - 1869 | दिल्ली, भारत

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता के शेर

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इज़हार-ए-इश्क़ उस से करना था 'शेफ़्ता'

ये क्या किया कि दोस्त को दुश्मन बना दिया

हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम

बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम होगा

फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ

बढ़ा भी देते हैं हम ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए

जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'

कम्बख़्त गालियाँ भी नहीं मेरे वास्ते

इतनी बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत

दामन को ज़रा देख ज़रा बंद-ए-क़बा देख

शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'

इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई

बे-उज़्र वो कर लेते हैं व'अदा ये समझ कर

ये अहल-ए-मुरव्वत हैं तक़ाज़ा करेंगे

हज़ार दाम से निकला हूँ एक जुम्बिश में

जिसे ग़ुरूर हो आए करे शिकार मुझे

किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर

क्या कोई और सितम याद आया

आशुफ़्ता-ख़ातिरी वो बला है कि 'शेफ़्ता'

ताअत में कुछ मज़ा है लज़्ज़त गुनाह में

उड़ती सी 'शेफ़्ता' की ख़बर कुछ सुनी है आज

लेकिन ख़ुदा करे ये ख़बर मो'तबर हो

ताब-ए-बर्क़ थोड़ी सी तकलीफ़ और भी

कुछ रह गए हैं ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ हनूज़

दिल-ए-बद-ख़ू की किसी तरह रऊनत कम हो

चाहता हूँ वो सनम जिस में मोहब्बत कम हो

किस तजाहुल से वो कहता है कहाँ रहते हो

तेरे कूचे में सितमगार तिरे कूचे में

शब वस्ल की भी चैन से क्यूँकर बसर करें

जब यूँ निगाहबानी मुर्ग़-ए-सहर करें

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