मुनीर शिकोहाबादी के शेर
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
दो कश्तियाँ मिली हैं डुबोने के वास्ते
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सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने
पानी भरे घटा तिरे बालों के सामने
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जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
फिरता नहीं वो तीर जो निकला कमान से
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उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
की अहल-ए-सुख़न ने तिरी तारीफ़ बड़ी बात
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बोसा होंटों का मिल गया किस को
दिल में कुछ आज दर्द मीठा है
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एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
चोरी की मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं है
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महरूम हूँ मैं ख़िदमत-ए-उस्ताद से 'मुनीर'
कलकत्ता मुझ को गोर से भी तंग हो गया
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
वुज़ू के वास्ते लेता है आबरू-ए-शराब
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देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
हर बुत ख़ुदा है चाहने वालों के सामने
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बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
वा'दे क्यूँ टालते हो गिन गिन के
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दीदार का मज़ा नहीं बाल अपने बाँध लो
कुछ मुझ को सूझता नहीं अँधियारी रात है
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कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
ख़ुदा हैं कैसे कि पैग़ाम्बर नहीं रखते
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ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
मेहदी का चोर हाथ से जाए न छूट के
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मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
दरवाज़ा घर से सैकड़ों फ़रसंग हो गया
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ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
बुत बना देगी तुम्हें ये हक़-परस्ती एक दिन
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ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
निय्यत अदा की है कि इशारे क़ज़ा के हैं
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की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
दैर-ओ-हरम में मुझ को तिरा नाम ले गया
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हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथ
पाता है आ के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत
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बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
मुँह मिरा मीठा किया जाता नहीं
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आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
तस्बीह पढ़ा करते हैं दिन रात तुम्हारी
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गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
मिशअलें आप के साए से जला लेते हैं
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मैं जुस्तुजू से कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
का'बे तक इन बुतों का मुझे नाम ले गया
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उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी
मोती भी सदफ़ में तह-ए-दरिया नज़र आया
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चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
अंगिया का पान देख के मुँह लाल हो गया
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शैख़ ले है राह का'बे की बरहमन दैर की
इश्क़ का रस्ता जुदा है कुफ़्र और इस्लाम से
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शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
क्या लुत्फ़ है शबनम तह-ए-शबनम नज़र आई
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पाया तबीब ने जो तिरी ज़ुल्फ़ का मरीज़
शामिल दवा में मुश्क-ए-शब-ए-तार कर दिया
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जान देता हूँ मगर आती नहीं
मौत को भी नाज़-ए-मअशूक़ाना है
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जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
ऐ बरहमन मुझ को बैतुल्लाह ने धोका दिया
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खाते हैं अंगूर पीते हैं शराब
बस यही मस्तों का आब-ओ-दाना है
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शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
जो कि पर्दे में भी उर्यां न हुआ था सो हुआ
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उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
सुलझी हुई हम ने न सुनी बात तुम्हारी
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हिज्र-ए-जानाँ के अलम में हम फ़रिश्ते बन गए
ध्यान मुद्दत से छुटा आब-ओ-तआ'म-ओ-ख़्वाब का
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कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
किस रोज़ मिरे क़त्ल का बीड़ा नहीं उठता
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आते नहीं हैं दीदा-गिर्यां के सामने
बादल भी करते हैं मिरी बरसात का लिहाज़
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बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
है अहल-ए-इल्म को तिरा तर्ज़-ए-बयाँ पसंद
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बिस्मिलों से बोसा-ए-लब का जो वा'दा हो गया
ख़ुद-ब-ख़ुद हर ज़ख़्म का अंगूर मीठा हो गया
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जब बढ़ गई उम्र घट गई ज़ीस्त
जो हद से ज़ियादा हो वो कम है
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लग गई आग आतिश-ए-रुख़ से नक़ाब-ए-यार में
देख लो जलता है कोना चादर-ए-महताब का
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फ़र्ज़ है दरिया-दिलों पर ख़ाकसारों की मदद
फ़र्श सहरा के लिए लाज़िम हुआ सैलाब का
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याद उस बुत की नमाज़ों में जो आई मुझ को
तपिश-ए-शौक़ से हर बार में बैठा उट्ठा
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वहाँ पहुँच नहीं सकतीं तुम्हारी ज़ुल्फ़ें भी
हमारे दस्त-ए-तलब की जहाँ रसाई है
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यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर
हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत
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किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
आता नहीं है मशअ'ल-ए-मह का धुआँ पसंद
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रिंदों को पाबंदी-ए-दुनिया कहाँ
कश्ती-ए-मय को नहीं लंगर की चाह
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लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
आया अमल में इल्म-ए-निहानी पलंग पर
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आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
परवाना चाहिए उन्हें परवाना चाहिए
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मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
लड़ता है आज शीशे से शीशा शराब का
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भटके फिरे दो अमला-ए-दैर-ओ-हरम में हम
इस सम्त कुफ़्र उस तरफ़ इस्लाम ले गया
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इख़्तिलात अपने अनासिर में नहीं
जो है मेरे जिस्म में बेगाना है
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टैग : अनासिर
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