कालीदास गुप्ता रज़ा के शेर
ज़माना हुस्न नज़ाकत बला जफ़ा शोख़ी
सिमट के आ गए सब आप की अदाओं में
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अज़ल से ता-ब-अबद एक ही कहानी है
इसी से हम को नई दास्ताँ बनानी है
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हम न मानेंगे ख़मोशी है तमन्ना का मिज़ाज
हाँ भरी बज़्म में वो बोल न पाई होगी
चमन का हुस्न समझ कर समेट लाए थे
किसे ख़बर थी कि हर फूल ख़ार निकलेगा
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दुनिया तो सीधी है लेकिन दुनिया वाले
झूटी सच्ची कह के उसे बहकाते होंगे
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अब कोई ढूँड-ढाँड के लाओ नया वजूद
इंसान तो बुलंदी-ए-इंसाँ से घट गया
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हयात लाख हो फ़ानी मगर ये सुन रखिए
हयात से जो है मक़्सूद ग़ैर-फ़ानी है
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बहार आई गुलों को हँसी नहीं आई
कहीं से बू तिरी गुफ़्तार की नहीं आई
सामना आज अना से होगा
बात रखनी है तो सर दे देना
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ख़िरद ढूँढती रह गई वजह-ए-ग़म
मज़ा ग़म का दर्द आश्ना ले गया
बात अगर न करनी थी क्यूँ चमन में आए थे
रंग क्यूँ बिखेरा था फूल क्यूँ खिलाए थे
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लब-ए-ख़िरद से यही बार बार निकलेगा
निकालने ही से दिल का ग़ुबार निकलेगा
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जब फ़िकरों पर बादल से मंडलाते होंगे
इंसाँ घट कर साए से रह जाते होंगे
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सुराग़-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत का ढूँडियो न कहीं
कि उन की राख हवा में बिखेर आया मैं
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