अज़हर इनायती के शेर
हर एक रात को महताब देखने के लिए
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए
ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है
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अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना
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ग़ज़ल का शेर तो होता है बस किसी के लिए
मगर सितम है कि सब को सुनाना पड़ता है
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रास्तो क्या हुए वो लोग कि आते-जाते
मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिए
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टैग : याद-ए-रफ़्तगाँ
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ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन
मैं ने कश्ती को ग़लत सम्त में बहने न दिया
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पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
मगर माहौल ज़हरीला नहीं था
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किसी के ऐब छुपाना सवाब है लेकिन
कभी कभी कोई पर्दा उठाना पड़ता है
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तमाम-शहर में किस तरह चाँदनी फैली
कि माहताब तो कल रात मेरे घर में था
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ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर
ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है
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नक़्श मिटते हैं तो आता है ख़याल
रेत पर हम भी कहाँ थे पहले
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वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए
अवाम थकने लगे तालियाँ बजाते हुए
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टैग : सियासत
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कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं
अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया
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टैग : इंतिक़ाम
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सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए
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इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
ये आख़िरी दरख़्त बहुत याद आएगा
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ख़ुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए ज़ख़्मी
हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए
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लोग यूँ कहते हैं अपने क़िस्से
जैसे वो शाह-जहाँ थे पहले
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वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना
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टैग : ख़त
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पलट चलें कि ग़लत आ गए हमीं शायद
रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं
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हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए
जो बुझ गए हैं चराग़ों की लौ बढ़ाते हुए
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ये भी रहा है कूचा-ए-जानाँ में अपना रंग
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया
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टैग : आहट
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मेरी ख़ामोशी पे थे जो तअना-ज़न
शोर में अपने ही बहरे हो गए
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ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते
रईस ख़ुद नहीं हँसते हँसाना पड़ता है
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वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका
तमाम शहर के बच्चों से प्यार करता था
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मुझ को भी जागने की अज़िय्यत से दे नजात
ऐ रात अब तो घर के दर-ओ-बाम सो गए
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टैग : बाम
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आज शहरों में हैं जितने ख़तरे
जंगलों में भी कहाँ थे पहले
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शिकस्तगी में भी क्या शान है इमारत की
कि देखने को इसे सर उठाना पड़ता है
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आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
माँग कर मैं चराग़ लाता हूँ
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जवानों में तसादुम कैसे रुकता
क़बीले में कोई बूढ़ा नहीं था
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अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
याद रखने को मुलाक़ात के जुगनू ले जा
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चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए
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जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
कहाँ से लाऊँ खिलौनों की उन दुकानों को
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मैं जिसे ढूँडने निकला था उसे पा न सका
अब जिधर जी तिरा चाहे मुझे ख़ुश्बू ले जा
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जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए
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घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा
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नया ख़ूँ रगों में रवाँ कर दिया
ग़ज़ल हम ने तुझ को जवाँ कर दिया
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इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग
महफ़ूज़ कर रहे हैं फ़ज़ा में सदाएँ हम
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टैग : आगही
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सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए
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उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें
हम-साए का मगर वो गला काटते रहे
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हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
याँ 'ज़ौक़' ने 'ग़ालिब' को भी ग़ालिब नहीं समझा
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क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
क्या देखने को अब यहाँ आए हुए हैं लोग
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करने को रौशनी के तआक़ुब का तजरबा
कुछ दूर मेरे साथ भी परछाइयाँ गईं
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तमाम शहर से बद-ज़न करा दिया शह को
मुसाहिबों का ख़ुदा जाने था इरादा क्या
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अब मिरे ब'अद कोई सर भी नहीं होगा तुलू'अ
अब किसी सम्त से पत्थर भी नहीं आएगा
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तारीख़ भी हूँ उतने बरस की मोअर्रिख़ो
चेहरे पे मेरे जितने बरस की ये गर्द है
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हमारे सर की बुलंदी तक आओ तो देखो
फ़राज़-ए-दार से क्या क्या दिखाई देता है
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