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अख़्तर होशियारपुरी

1918 - 2007 | रावलपिंडी, पाकिस्तान

ख्यातिप्राप्त शायर, अपने ना’तिया कलाम के लिए भी चर्चित. पाकिस्तान सरकार के “तमग़ा-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित

ख्यातिप्राप्त शायर, अपने ना’तिया कलाम के लिए भी चर्चित. पाकिस्तान सरकार के “तमग़ा-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित

अख़्तर होशियारपुरी के शेर

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कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए

वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था

लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं

अपनी आँखों को झुकाए रखना

जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ

हमें तो घर में भी रुकने का हौसला हुआ

'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ चौंक

इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है

वो पेड़ तो नहीं था कि अपनी जगह रहे

हम शाख़ तो नहीं थे मगर फिर भी कट गए

मैं ने जो ख़्वाब अभी देखा नहीं है 'अख़्तर'

मेरा हर ख़्वाब उसी ख़्वाब की ताबीर भी है

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है

इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ

वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी था

कि सच ही बोलता था जब भी बोलता था बहुत

थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी

वो शहर क्या हुआ जिस की थी हर गली मेरी

मैले कपड़ों का अपना रंग भी था

फिर भी क़िस्मत में जग-हँसाई थी

वो शायद कोई सच्ची बात कह दे

उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है

गुज़रते वक़्त ने क्या क्या चारा-साज़ी की

वगरना ज़ख़्म जो उस ने दिया था कारी था

चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को

कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी

क्या लोग हैं कि दिल की गिरह खोलते नहीं

आँखों से देखते हैं मगर बोलते नहीं

अलमारी में तस्वीरें रखता हूँ

अब बचपन और बुढ़ापा एक हुए

रूह की गहराई में पाता हूँ पेशानी के ज़ख़्म

सिर्फ़ चाहा ही नहीं मैं ने उसे पूजा भी है

धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए

इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया

हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र था फिर भी

यक़ीं की मंज़िलें तय कीं गुमाँ के होते हुए

कुछ इतने हो गए मानूस सन्नाटों से हम 'अख़्तर'

गुज़रती है गिराँ अपनी सदा भी अब तो कानों पर

जलती रुतो गवाह रहना

हम नंगे पाँव चल रहे हैं

यही दिन में ढलेगी रात 'अख़्तर'

यही दिन का उजाला रात होगा

हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं

मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था

ज़लज़ला आया तो दीवारों में दब जाऊँगा

लोग भी कहते हैं ये घर भी डराता है मुझे

किसी से मुझ को गिला क्या कि कुछ कहूँ 'अख़्तर'

कि मेरी ज़ात ही ख़ुद रास्ते का पत्थर है

सैलाब उमँड के शहर की गलियों में गए

लेकिन ग़रीब-ए-शहर का दामन तर हुआ

पुराने ख़्वाबों से रेज़ा रेज़ा बदन हुआ है

ये चाहता हूँ कि अब नया कोई ख़्वाब देखूँ

जिस क़दर नीचे उतरता हूँ मैं

झील भी गहरी हुई जाती है

तमाम हर्फ़ मिरे लब पे के जम से गए

जाने मैं कहा क्या और उस ने समझा क्या

मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र

ये लोग वो हैं जो चेहरे बदलते रहते हैं

किसे ख़बर कि गुहर कैसे हाथ आते हैं

समुंदरों से भी गहरी है ख़ामुशी मेरी

मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था

जाने फिर कहाँ आवाज़ खो गई मेरी

देखा है ये परछाईं की दुनिया में कि अक्सर

अपने क़द-ओ-क़ामत से भी कुछ लोग बड़े हैं

शायद अपना ही तआक़ुब है मुझे सदियों से

शायद अपना ही तसव्वुर लिए जाता है मुझे

ख़्वाहिशें ख़ून में उतरी हैं सहीफ़ों की तरह

इन किताबों में तिरे हाथ की तहरीर भी है

वही मिट्टी है सब के चेहरों पर

आइना सब से बा-ख़बर है यहाँ

सर पे तूफ़ान भी है सामने गिर्दाब भी है

मेरी हिम्मत कि वही कच्चा घड़ा है देखो

बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर

लोग भी कतराए क्या क्या मुझ को तन्हा देख कर

मैं अब भी रात गए उस की गूँज सुनता हूँ

वो हर्फ़ कम था बहुत कम मगर सदा था बहुत

ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात

अधूरी बात में भी रह गई कमी मेरी

कुछ मुझे भी यहाँ क़रार नहीं

कुछ तिरा ग़म भी दर-ब-दर है यहाँ

ये क्या कि मुझ को छुपाया है मेरी नज़रों से

कभी तो मुझ को मिरे सामने भी लाए वो

ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक

हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं

निकल कर गए हैं जंगलों में

मकाँ को ला-मकाँ करना पड़ा है

वो भी सच कहते हैं 'अख़्तर' लोग बेगाने हुए

हम भी सच्चे हैं कि दुनिया का चलन ऐसा था

टकरा के सर को अपना लहू आप चाटते

अच्छा हुआ कि दश्त में दीवार-ओ-दर थे

ये कहीं उम्र-ए-गुज़िश्ता तो नहीं तुम तो नहीं

कोई फिरता है सर-ए-शहर-ए-वफ़ा आवारा

ज़िंदगी मर्ग-ए-तलब तर्क-ए-तलब 'अख़्तर' थी

फिर भी अपने ताने-बाने में मुझे उलझा गई

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