लेखक पर उद्धरण

ज़बान और अदब की ख़िदमत हो सकती है सिर्फ़ अदीबों और ज़बान-दानों की हौसला-अफ़ज़ाई से। और हौसला-अफ़ज़ाई सिर्फ उनकी मेहनत का मुआवज़ा अदा करने ही से हो सकती है।
-
टैग्ज़ : भाषाऔर 2 अन्य

आख़िर कब तक अदीब एक नाकारा आदमी समझा जाएगा। कब तक शायर को एक गप्पें हाँकने वाला मुतसव्वर किया जाएगा, कब तक हमारे लिट्रेचर पर चंद ख़ुद-ग़रज़ और हवस-परस्त लोगों की हुक्मुरानी रहेगी। कब तक?
-
टैग्ज़ : शायरऔर 3 अन्य

मज़ाह लिखना अपने लहू में तप कर निखरने का नाम है।

अच्छे तंज़निगार तने हुए रस्से पर इतरा-इतरा कर करतब नहीं दिखाते, बल्कि ‘रक़्स ये लोग किया करते हैं तलवारों पर’

हमें अपने क़लम से रोज़ी कमाना है और हम इस ज़रिये से रोज़ी कमा कर रहेंगे। ये हर्गिज़ नहीं हो सकता कि हम और हमारे बाल बच्चे फ़ाक़े मरें और जिन अख़बारों और रिसालों में हमारे मज़ामीन छपते हैं, उनके मालिक ख़ुशहाल रहें।
-
टैग्ज़ : रोज़गारऔर 2 अन्य

अदब की रौनक़ हमारे दम से है। उन लोगों के दम से नहीं है जिनके पास छापने की मशीनें, स्याही और अनगिनत काग़ज़ हैं। लिट्रेचर का दिया हमारे ही दिमाग़ के रौग़न से जलता है।
-
टैग्ज़ : रोज़गारऔर 2 अन्य

हिन्दी हिन्दुस्तानी और उर्दू हिन्दी के क़ज़िये से हमें कोई वास्ता नहीं। हम अपनी मेहनत के दाम चाहते हैं। मज़मून-नवीसी हमारा पेशा है, फिर क्या वजह है कि हम उस के ज़रीये से ज़िंदा रहने का मुतालिबा ना करें। जो पर्चे, जो रिसाले, जो अख़बार हमारी तहरीरों के दाम अदा नहीं कर सकते बिलकुल बंद हो जाने चाहिऐं।
-
टैग्ज़ : प्रकाशनऔर 4 अन्य

सबसे बड़ी शिकायत मुझे उन अदीबों, शायरों और अफ़साना निगारों से है जो अख़बारों और रिसालों में बग़ैर मुआवज़े के मज़मून भेजते हैं। वो क्यों उस चीज़ को पालते हैं जो एक खील भी उनके मुँह में नहीं डालती। वो क्यों ऐसा काम करते हैं जिससे उनको ज़ाती फ़ायदा नहीं पहुंचता। वो क्यों उन काग़ज़ों पर नक़्श-ओ-निगार बनाते हैं जो उनके लिए कफ़न का काम भी नहीं दे सकते।
-
टैग्ज़ : प्रकाशनऔर 2 अन्य

मज़मून निगार दिमाग़ी अय्याश नहीं। अफ़्साना निगार ख़ैराती हस्पताल नहीं हैं। हम लोगों के दिमाग़ लंगर-ख़ाने नहीं हैं।
-
टैग्ज़ : भूखऔर 1 अन्य

सच्ची ख़ुशी हमेशा लिखने से होती है। मैं हर नई तख़लीक़ पर बच्चों की तरह ख़ुश हो जाता हूँ