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Zia Jalandhari's Photo'

अग्रणी आधुनिक पाकिस्तानी शायरों में विख्यात।

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ज़िया जालंधरी के शेर

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बुरा मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का

जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं

रंग बातें करें और बातों से ख़ुश्बू आए

दर्द फूलों की तरह महके अगर तू आए

हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम

चुप बैठने से हल नहीं होने का मसअला

इश्क़ में भी कोई अंजाम हुआ करता है

इश्क़ में याद है आग़ाज़ ही आग़ाज़ मुझे

ये आँसू ये पशेमानी का इज़हार

मुझे इक बार फिर बहका गई हो

'ज़िया' वो ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है

जिसे ख़ुद मौत भी ठुकरा गई हो

तू कोई सूखा हुआ पत्ता नहीं है कि जिसे

जिस तरफ़ मौज-ए-हवा चाहे उड़ा कर ले जाए

हाँ मुझ पे सितम भी हैं बहुत वक़्त के लेकिन

कुछ वक़्त की हैं मुझ पे इनायात वो तुम हो

इतना सोचा तुझे कि दुनिया को

हम ने तेरी निगाह से देखा

देख फूलों से लदे धूप नहाए हुए पेड़

हँस के कहते हैं गुज़ारी है ख़िज़ाँ भी हम ने

कैसे दुख कितनी चाह से देखा

तुझे किस किस निगाह से देखा

तेरे दुख को पा कर हम तो अपना दुख भी भूल गए

किस को ख़बर थी तेरी ख़मोशी तह-दर-तह इक तूफ़ाँ है

मैं आफ़्ताब को कैसे दिखाऊँ तारीकी

तुझे मैं कैसे बताऊँ कि क्या है तन्हाई

तेरा ग़म भी हो तो क्या जीना

कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे

वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर

वो जुर्म क्या था कि जिस की सज़ा है तन्हाई

अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं

मैं ने रफ़्ता से ये जाना है कि आइंदा नहीं

उन कही बात के सौ रूप कही बात का एक

कभी सुन वो भी जो मिन्नत-कश-ए-गोयाई नहीं

मुश्किलें दिल में नई शमएँ जला देती हैं

ग़म से बुझ जाना तो दरवेशों का दस्तूर नहीं

अब जो रूठे तो जाँ पे बनती है

ख़ुश हुआ मुझ से बे-सबब कोई

वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम

मेरी आँखों में रहो ख़्वाब-ए-मुजस्सम की तरह

इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल

आईना-ए-ख़याल में भी हू-ब-हू थी

अब्र-ए-आवारा से मुझ को है वफ़ा की उम्मीद

बर्क़-ए-बेताब से शिकवा है कि पाइंदा नहीं

वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले

जिस शाख़ पे धूप आए जिस शाख़ को नम पहुँचे

उन्हें अपने गुदाज़-ए-दिल से अंदाज़ा था औरों का

जब इंसानों के दिल देखे तो इंसानों के दिल टूटे

अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना

वो आँख जब भी उठी है दामान-ए-दर्द फूलों से भर गई है

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