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शाद अज़ीमाबादी के शेर
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है
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टैग : ख़ामोशी
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अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
ज़िंदगी छोड़ दे पीछा मिरा मैं बाज़ आया
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दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
मैं ख़ुद आया नहीं लाया गया हूँ
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तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौने दे के बहलाया गया हूँ
सुन चुके जब हाल मेरा ले के अंगड़ाई कहा
किस ग़ज़ब का दर्द ज़ालिम तेरे अफ़्साने में था
जैसे मिरी निगाह ने देखा न हो कभी
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर
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कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
शाम से सुब्ह हुई सुब्ह से फिर शाम हुई
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ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
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ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम
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टैग : तअल्ली
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मैं 'शाद' तन्हा इक तरफ़ और दुनिया की दुनिया इक तरफ़
सारा समुंदर इक तरफ़ आँसू का क़तरा इक तरफ़
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परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
गुज़री है रात शम्अ पे क्या देखते चलें
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हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
इधर से मुद्दतों आया गया हूँ
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इज़हार-ए-मुद्दआ का इरादा था आज कुछ
तेवर तुम्हारे देख के ख़ामोश हो गया
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हज़ार शुक्र मैं तेरे सिवा किसी का नहीं
हज़ार हैफ़ कि अब तक हुआ न तू मेरा
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कहाँ से लाऊँ सब्र-ए-हज़रत-ए-अय्यूब ऐ साक़ी
ख़ुम आएगा सुराही आएगी तब जाम आएगा
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दिल अपनी तलब में सादिक़ था घबरा के सू-ए-मतलूब गया
दरिया से ये मोती निकला था दरिया ही में जा कर डूब गया
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ईद में ईद हुई ऐश का सामाँ देखा
देख कर चाँद जो मुँह आप का ऐ जाँ देखा
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टैग : ईद
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तिरा आस्ताँ जो न मिल सका तिरी रहगुज़र की ज़मीं सही
हमें सज्दा करने से काम है जो वहाँ नहीं तो कहीं सही
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देखने वाले को तेरे देखने आते हैं लोग
जो कशिश तुझ में थी अब वो तेरे दीवाने में है
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लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
भरी महफ़िल से उठवाया गया हूँ
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जब किसी ने हाल पूछा रो दिया
चश्म-ए-तर तू ने तो मुझ को खो दिया
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ग़ुंचों के मुस्कुराने पे कहते हैं हँस के फूल
अपना करो ख़याल हमारी तो कट गई
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मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
दरिया-ए-मोहब्बत कहता है आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम
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तेरे बीमार-ए-मोहब्बत की ये हालत पहुँची
कि हटाया गया तकिया भी सिरहाने वाला
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निगाह-ए-नाज़ से साक़ी का देखना मुझ को
मिरा वो हाथ में साग़र उठा के रह जाना
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एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
तिरछी निगाहें तंग क़बाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
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भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
तो ख़ामुशी को भी इज़हार-ए-मुद्दआ कहिए
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जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
कुछ वही अच्छे हैं जो वाक़िफ़ नहीं अंजाम से
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मिलेगा ग़ैर भी उन के गले ब-शौक़ ऐ दिल
हलाल करने मुझे ईद का हिलाल आया
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ख़ारों से ये कह दो कि गुल-ए-तर से न उलझें
सीखे कोई अंदाज़-ए-शरीफ़ाना हमारा
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जो तंग आ कर किसी दिन दिल पे हम कुछ ठान लेते हैं
सितम देखो कि वो भी छूटते पहचान लेते हैं
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नाज़ुक था बहुत कुछ दिल मेरा ऐ 'शाद' तहम्मुल हो न सका
इक ठेस लगी थी यूँ ही सी किया जल्द ये शीशा टूट गया
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नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
हमारा आप का जीना नहीं जीना उसी का है
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तलब करें भी तो क्या शय तलब करें ऐ 'शाद'
हमें तो आप नहीं अपना मुद्दआ मालूम
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कहते हैं अहल-ए-होश जब अफ़्साना आप का
हँसता है देख देख के दीवाना आप का
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शब को मिरी चश्म-ए-हसरत का सब दर्द-ए-दिल उन से कह जाना
दाँतों में दबा कर होंट अपना कुछ सोच के उस का रह जाना
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तस्कीन तो होती थी तस्कीन न होने से
रोना भी नहीं आता हर वक़्त के रोने से
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अजल भी टल गई देखी गई हालत न आँखों से
शब-ए-ग़म में मुसीबत सी मुसीबत हम ने झेली है
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चमन में जा के हम ने ग़ौर से औराक़-ए-गुल देखे
तुम्हारे हुस्न की शरहें लिखी हैं इन रिसालों में
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सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मा'लूम
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टैग : ज़िंदगी
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ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ या आप दिल-ए-बेताब हैं हम
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कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
अभी तक राह में वो कर रहे हैं इंतिज़ार अपना
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