सख़ी लख़नवी के शेर
जाएगी गुलशन तलक उस गुल की आमद की ख़बर
आएगी बुलबुल मिरे घर में मुबारकबाद को
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हिचकियाँ आती हैं पर लेते नहीं वो मेरा नाम
देखना उन की फ़रामोशी को मेरी याद को
बात करने में होंट लड़ते हैं
ऐसे तकरार का ख़ुदा-हाफ़िज़
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अजी फेंको रक़ीब का नामा
न इबारत भली न अच्छा ख़त
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टैग : ख़त
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बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
तुझ में है ढंग यार के लब का
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टैग : बर्ग
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रुख़ हाथ पे रक्खा न करो वक़्त-ए-तकल्लुम
हर बात में क़ुरआन उठाया नहीं जाता
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न आशिक़ हैं ज़माने में न माशूक़
इधर हम रह गए हैं और उधर आप
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देखो क़लई खुलेगी साफ़ उस की
आईना उन के मुँह चढ़ा है आज
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ज़िंदगी तक मिरी हँस लीजिए आप
फिर मुझे रोइएगा मेरे ब'अद
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दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
इस गुनहगार का ख़ुदा-हाफ़िज़
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रहते काबे में अकेले क्या हम
दिल लगाने को सनम भी तो न थे
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यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
क्यूँ क़सम लूँ क़सम के क्या मअनी
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मैं तुझे फिर ज़मीं दिखाऊँगा
देख मुझ से न आसमान बिगड़
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वो आशिक़ हैं कि मरने पर हमारे
करेंगे याद हम को उम्र भर आप
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ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
ऐसे तारे न ऐसा प्यारा चाँद
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सीने से हमारा दिल न ले जाओ
छुड़वाते हो क्यूँ वतन किसी का
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ख़ून-ए-उश्शाक़ है मआनी में
शौक़ से पान खाइए साहब
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टैग : पान
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देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
तुम को क्या ग़ैर को क्या हम को क्या
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रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
और पसीने की बू गुलाब में है
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हम उन से आज का शिकवा करेंगे
उखाड़ेंगे वो बरसों की गड़ी बात
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बोसा हर वक़्त रुख़ का लेता है
किस क़दर गेसू-ए-दोता है शोख़
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कहना मजनूँ से कि कल तेरी तरफ़ आऊँगा
ढूँडने जाता हूँ फ़रहाद को कोहसार में आज
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बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
उठो सोने वालो फिर आएगी रात
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तुम न आसान को आसाँ समझो
वर्ना मुश्किल मिरी मुश्किल तो नहीं
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इस तरफ़ बज़्म में हम थे वो थे
उस तरफ़ शम्अ थी परवाना था
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दिल कलेजे दिमाग़ सीना ओ चश्म
इन के रहने के हैं मकान बहुत
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आँखों से पा-ए-यार लगाने की है हवस
हल्क़ा हमारे चश्म का उस की रिकाब हो
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दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
हिज्र में सब हैं मगर दिल तो नहीं
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था हिना से जो शोख़ मेरा ख़ूँ
बोले ये लाल लाल है कुछ और
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'सख़ी' बैठिए हट के कुछ उस के दर से
बड़ी भीड़ होगी कुचल जाइएगा
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न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन
रगड़वाएगी कब तक एड़ियाँ रूह
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तस्वीर-ए-चश्म-ए-यार का ख़्वाहाँ है बाग़बाँ
ईजाद होगी नर्गिस-ए-बीमार की जगह
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चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
यार का साग़र-ए-सिफ़ाली है
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कभी पहुँचेगा दिल उन उँगलियों तक
नगीने की तरह ख़ातिम में जड़ के
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शैख़-जी बुत की बुराई कीजे
अपने अल्लाह से भरपाइगा
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नज़'अ के दम भी उन्हें हिचकी न आएगी कभी
यूँही गर भूले रहेंगे वो 'सख़ी' की याद को
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हमा-तन हो गए हैं आईना
ख़ुद-नुमाई सी ख़ुद-नुमाई है
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क़ाफ़िला जाता है साग़र की तरफ़ रिंदों का
है मगर क़ुलक़ुल-ए-मीना जरस-ए-जाम-ए-शराब
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ख़ुदा के पास क्या जाएँगे ज़ाहिद
गुनाह-गारों से जब ये बार पाएँ
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क्यूँ हसीनों की आँखों से न लड़े
मेरी पुतली की मर्दुमी ही तो है
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पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
और तवाफ़-ए-हरम के क्या मअनी
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ली ज़बाँ उस की जो मुँह में हो गया ज़ौक़-ए-नबात
उँगलियाँ चूसीं तो ज़ौक़-ए-नैशकर पैदा हुआ
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कअ'बे में सख़्त-कलामी सुन ली
बुत-कदे में न कभी आइएगा
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मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
चलो तुर्बत में अब तुम को सुलाएँ
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जीतेंगे न हम से बाज़ी-ए-इश्क़
अग़्यार के पिट पड़ेंगे पाँसे
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की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
बंदा भी आख़िर आदमी ही तो है
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जिस के घर जाते न थे हज़रत-ए-दिल
वाँ लगे फाँद ने दीवार ये क्या
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नक़्द-ए-दिल का बड़ा तक़ाज़ा है
गोया उन की ज़मीं जोते हैं
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एक दो तीन चार पाँच छे सात
यूँही गिन लेंगे कम के क्या मअनी
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