क़ाबिल अजमेरी के शेर
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
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रास्ता है कि कटता जाता है
फ़ासला है कि कम नहीं होता
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अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
अश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं
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कुछ देर किसी ज़ुल्फ़ के साए में ठहर जाएँ
'क़ाबिल' ग़म-ए-दौराँ की अभी धूप कड़ी है
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ज़माना दोस्त है किस किस को याद रक्खोगे
ख़ुदा करे कि तुम्हें मुझ से दुश्मनी हो जाए
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तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
इश्क़ इंसान की ज़रूरत है
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हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
आए दुनिया हमारे साथ चले
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हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
हौसले आग को गुलज़ार बना देते हैं
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कितने शोरीदा-सर मोहब्बत में
हो गए कूचा-ए-सनम की ख़ाक
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तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
मैं रो रहा हूँ तुम हँस रहे हो मैं मुस्कुराया तो क्या करोगे
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बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
कहीं ज़िंदगी को क़रार आ न जाए
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ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
जुनून-ए-कूचा-ए-दिलदार हम भी रखते हैं
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तुम को भी शायद हमारी जुस्तुजू करनी पड़े
हम तुम्हारी जुस्तुजू में अब यहाँ तक आ गए
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हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए
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उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी
क़िस्सा-ए-ग़म कहते कहते हम कहाँ तक आ गए
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ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए
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कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी
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ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
हम हैं तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ किए हुए
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ये सब रंगीनियाँ ख़ून-ए-तमन्ना से इबारत हैं
शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती
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मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
मगर कुछ अपने लिए भी सोचा मैं याद आया तो क्या करोगे
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अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों की बरहमी का सवाल आया तो क्या करोगे
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कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त
बुझता जाता है दिल चराग़ जले
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कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
तिरे कूचे में पाँव लड़खड़ाना भूल जाते हैं
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आज 'क़ाबिल' मय-कदे में इंक़लाब आने को है
अहल-ए-दिल अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तक आ गए
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कूचा-ए-यार मरकज़-ए-अनवार
अपने दामन में दश्त-ए-ग़म की ख़ाक
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वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद
सहर थी शाम से पहले सहर है शाम के बाद
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दिन छुपा और ग़म के साए ढले
आरज़ू के नए चराग़ जले
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मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
तुम्हें बुलाना भी जानता हूँ
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तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
ख़याल-ए-रस्म-ए-वफ़ा है वर्ना
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