नातिक़ गुलावठी के शेर
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
बात किस की रह गई कोई अदू सच्चा न हम
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अब मैं क्या तुम से अपना हाल कहूँ
ब-ख़ुदा याद भी नहीं मुझ को
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ऐ जुनूँ बाइस-ए-बद-हाली-ए-सहरा क्या है
ये मिरा घर तो नहीं था कि जो वीराँ होता
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रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
क्या कीजिए कि लुत्फ़ नहीं कुछ गुनाह का
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उम्र भर का साथ मिट्टी में मिला
हम चले ऐ जिस्म-ए-बे-जाँ अलविदाअ'
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कुछ नहीं अच्छा तो दुनिया में बुरा भी कुछ नहीं
कीजिए सब कुछ मगर अपनी ज़रूरत देख कर
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कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
मरने वाले ज़िंदगी चाहे तो अफ़्साने में आ
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मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो
मिल गई राह-ए-सुकूँ गर्दिश-ए-दौराँ के क़रीब
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जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
आती जाती है अब इस बुत की नहीं हाँ के क़रीब
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नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
मैं इधर चश्म-ए-सुख़न-गो तिरी बातों में रहा
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रहती है शम्स-ओ-क़मर को तिरे साए की तलाश
रौशनी ढूँढती फिरती है अँधेरा तेरा
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ऐ ज़िंदगी जुनूँ न सही बे-ख़ुदी सही
तू कुछ भी अपनी अक़्ल से पागल उठा तो ला
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टैग : बेख़ुदी
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खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
ऐ अजल कब तक रहेंगे रहन-ए-आब-ओ-दाना हम
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ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
बुत ने घबरा के कहा मुझ से कि क़ुरआन उठा
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हाँ ये तो बता ऐ दिल-ए-महरूम-ए-तमन्ना
अब भी कोई होता है कि अरमाँ नहीं होता
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इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
जाने दो गए शिकवे आ जाओ मैं बाज़ आया
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जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
मेरी मुश्किल का तरीक़ा नहीं आसाँ होना
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तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
सलीक़ा बंदा-परवर चाहिए बंदा-नवाज़ी का
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पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
मस्जिद में जा निकलते हैं चोरी-छुपी से हम
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वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
जहाँ चश्म-ए-करम से ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ काम होना था
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क्या करूँ ऐ दिल-ए-मायूस ज़रा ये तो बता
क्या किया करते हैं सदमों से हिरासाँ हो कर
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ऐ निगाह-ए-मस्त उस का नाम है कैफ़-ए-सुरूर
आज तू ने देख कर मेरी तरफ़ देखा मुझे
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मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया
आज तो घर लूट लाई है दुआ तासीर की
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कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या
कीजिए शग़्ल-ए-मय-कशी इस में किसी की राय क्यूँ
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आ उम्र-ए-रफ़्ता हश्र के दम-ख़म भी देख लें
तूफ़ान-ए-ज़िंदगी की वो हलचल उठा तो ला
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हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब
भूल जा ख़ुद को कि है मअरिफ़त-ए-नफ़्स यही
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तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
कि एक बात नहीं ए'तिबार के क़ाबिल
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हमारे ऐब में जिस से मदद मिले हम को
हमें है आज कल ऐसे किसी हुनर की तलाश
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अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में
हम दौर चलाते हैं साक़ी से कहो मय ला
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हाँ जान तो देंगे मगर ऐ मौत अभी दम ले
ऐसा न कहें वो कि हम आए तो चले आप
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कौन इस रंग से जामे से हुआ था बाहर
किस से सीखा तिरी तलवार ने उर्यां होना
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आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
पास वहशत नहीं घर दूर है दीवाने का
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रह-नवरदान-ए-वफ़ा मंज़िल पे पहुँचे इस तरह
राह में हर नक़्श-ए-पा मेरा बनाता था चराग़
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हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
होता है ये इरशाद कि पड़ते हैं गले आप
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कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो न बयान-ए-शे'र में
'नातिक़' इसी पे रोए क्यूँ चंग-नवाज़ गाए क्यूँ
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फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
जब और दूसरा नहीं कोई लिबास पास
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मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
मैं जुदा चीज़ हूँ 'नातिक़' मिरे अशआ'र जुदा
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गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो
सहारा हो गया है दीन दुनिया-दार लोगों का
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ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ
भर गया जितना हमारी उम्र का पैमाना था
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चराग़ ले के फिरा ढूँढता हुआ घर घर
शब-ए-फ़िराक़ जो मुझ को रही सहर की तलाश
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रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी
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ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
कुछ क्यूँ न था जहान में कुछ तो ज़रूर था
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सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल
आसान भी हो काम तो आसाँ नहीं होता
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बंदगी कीजिए मगर किस की
है भी दुनिया में कोई बंदा-नवाज़
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अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
जादा हमारे वास्ते काँटा है राह का
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आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
हम को था ही क्या लेना बुत मिले ख़ुदा पाया
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तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
घर जुदा खाने को आए दर-ओ-दीवार जुदा
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जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ
रंज उठाने ही की ठहरी है तो फिर दिल से उठा
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वफ़ा पर नाज़ हम को उन को अपनी बेवफ़ाई पर
कोई मुँह आइने में देखता है कोई पानी में
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अब जहाँ में बाक़ी है आह से निशाँ अपना
उड़ गए धुएँ अपने रह गया धुआँ अपना
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टैग : आह
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