नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल 37
अशआर 6
अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया
घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए
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बिछड़ कर उस से सीखा है तसव्वुर को बदन करना
अकेले में उसे छूना अकेले में सुख़न करना
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मिरी क़ीमत को सुनते हैं तो गाहक लौट जाते हैं
बहुत कमयाब हो जो शय वो होती है गिराँ अक्सर
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पुर्सिश-ए-हाल से ग़म और न बढ़ जाए कहीं
हम ने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
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दिन निकलना था कि सारे शहर में भगदड़ मची
अनगिनत ख़्वाबों के चेहरे भीड़ में गुम हो गए
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