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दिवाकर राही

1914 - 1968 | रामपुर, भारत

प्रसिद्ध शायर, लोकप्रिय शे’र ‘अब तो इतनीभी मयस्सर नहीं मयखाने में - जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में’ के रचयिता

प्रसिद्ध शायर, लोकप्रिय शे’र ‘अब तो इतनीभी मयस्सर नहीं मयखाने में - जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में’ के रचयिता

दिवाकर राही के शेर

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अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में

जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में

वक़्त बर्बाद करने वालों को

वक़्त बर्बाद कर के छोड़ेगा

इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं

ज़ेहनों में अँधेरे हैं सड़कों पे उजाले हैं

अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती

किनारों ने डुबोया है मुझे इस बात का ग़म है

वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम

यज़ीद मोरचा जीता है जंग हारा है

ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में

ख़ुद गए हैं वो मिरे ख़त के जवाब में

इस इंतिज़ार में बैठे हैं उन की महफ़िल में

कि वो निगाह उठाएँ तो हम सलाम करें

इस से पहले कि लोग पहचानें

ख़ुद को पहचान लो तो बेहतर है

बात हक़ है तो फिर क़ुबूल करो

ये देखो कि कौन कहता है

अगर नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है

इधर कश्ती ले आना यहाँ पानी बहुत कम है

सोचने की ये बात है 'राही'

सोचते ही रहे तो क्या होगा

सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में

ख़ुदा के नाम पे किस किस का एहतिराम करें

वक़्त को बस गुज़ार लेना ही

दोस्तो कोई ज़िंदगानी है

अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'

तुम्हारे ही इरादे में कमी मालूम होती है

ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे

इंकिसारी से वही शाख़ लचक जाएगी

बहुत आसान है दो घूँट पी लेना तो 'राही'

बड़ी मुश्किल से आते हैं मगर आदाब-ए-मय-ख़ाना

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