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समय का बंधन

मुमताज़ मुफ़्ती

समय का बंधन

मुमताज़ मुफ़्ती

MORE BYमुमताज़ मुफ़्ती

    रोचक तथ्य

    एक बाई की रुहानी जिंदगी के गिर्द घूमती कहानी, जो कोठे पर मुजरा किया करती थी. मगर एक रोज जब वह ठाकुर के यहां बैठक के लिए गई तो उसने वहां ख्वजा पिया मोरी रंग दे चुनरिया गीत गाया. इस गीत का उस पर ऐसा असर हुआ कि उसने उसकी पूरी जिंदगी को ही बदल दिया. वह बेकरार रहने लगी. इस बेकरारी से छुटकारा पाने के लिए उसने ठाकुर से शादी कर ली. मगर इसके बाद भी उसे सुकून नहीं मिला और वह खुद की तलाश में निकल गई.

    स्टोरीलाइन

    एक बाई की रुहानी ज़िंदगी के गिर्द घूमती कहानी, जो कोठे पर मुजरा किया करती थी। मगर एक रोज़ जब वह ठाकुर के यहाँ बैठक के लिए गई तो उसने वहाँ ख़्वाजा पिया मोरी रंग दे चुनरिया गीत गाया। इस गीत का उस पर ऐसा असर हुआ कि उसने उसकी पूरी ज़िंदगी को ही बदल दिया। वह बेक़रार रहने लगी। उस बेक़रारी से छुटकारा पाने के लिए उसने ठाकुर से शादी कर ली। मगर इसके बाद भी उसे सुकून नहीं मिला और वह ख़ुद की तलाश में निकल गई।

    आपी कहा करती थी, सुनहरे, समय समय की बात होती है। हर समय का अपना रंग होता है, अपना असर होता है। अपने समय पहचान, सुनहरे। अपने समय से बाहर निकल। जो निकली तो भटक जाएगी।

    अब समझ में आई आपी की बात। जब समझ लेती तो रस्ते से भटकती। आलने से गिरती, समझ तो गई। पर कितनी क़ीमत देनी पड़ी समझन की। आपी मुझे सुनहरे कह कर बुलाया करती थी। कहती थी तेरे पिंडे की झाल सुनहरी है। जब रस आएगा तो सोना बन जाएगी, कठाली में पड़े बना। फिर ये झाल कपड़ों से निकल निकल कर झाँकेगी।

    पता नहीं मेरा नाम क्या था। पता नहीं मैं किस की थी, कहाँ से आई थी। कोई लाया था। बालपन ही में आपी के हाथ बेच गया था। उसी की गोद में पली। उसी की सुरताल भरी बैठक के झूलने में झूल झूल कर जवान हुई। फिर सुनहरा उमड उमड आया। छुपाए छुपता था। आपी बोली, धीए, छुपा न। जो छुपाए छुपे उसे क्या छुपाना।

    कभी खिड़की से झाँकती तो आपी टोकती, ये क्या कर रही है बेटी? सयाने कहते हैं, जिसका काम उसी को साझे। तेरा काम देखना नहीं। दिखना है। तू नज़र बन, मंज़र बन। और जो देखे भी तो तू दिखने का घूँघट निकाल। उसकी ओट से देख। फिर समय देख सुनहरे। अभी तो शाम है। ये समय तो उदासी का समय है। दुख का समय है। शाम भई घन शाम आए। आपी गुनगुनाने लगी, याद है ये बोल? शाम तो आने का समय है। तेरा आने का समय है। पगली ज़रा रुक जा। अंधेरा गाढ़ा होने दे। फिर तेरा ही समय होगा। पिछले-पहर तक।

    एक दिन आपी का जी अच्छा था। मुझे बुलाया। गई, लेटी हुई थी। सिरहाने तिहाई सोडे की बोतल धरी थी। साथ नमकदानी थी। ये उन दिनों की बात है जब सोडे की बोतल के गले में शीशे का गोला फंसा होता था। 'ठा' करके खुलता था।

    बोली, सुनहरे, बोतल खोल, गिलास में डाल। चुटकी भर नमक घोल और मुझे पिला दे। मैंने नमक डाला तो झाग उठा। बुलबुले ही बुलबुले। आपी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। बोली, देख लड़की, ये हमारा समय है। हमारा समय वो है जब झाग उठे। हम में नहीं। दूजे में उठे। दूजे में झाग उठाना यही हमारा काम है। ख़ुद शांत दूजा बुलबुले ही बुलबुले। और जब समय बीत जाये तो धीरज पांव धरना। ठुमक करना। ठुमक का समय गया। चमक मारना। चमक का समय गया। पायल झंकारना। पायल की झंकार बैरन भई।

    फिर वो लेट गई। बोली, सुनहरे, मेरी बातें फेंक देना। दिल में रखना। ये भीतर की बातें हैं, ऊपर की नहीं, सुनी सुनाई नहीं, पढ़ी पढ़ाई नहीं। वो सब छिलके होते हैं, बादाम नहीं होतीं। जान ले बेटी बात वो जो भीतर की हो। गिरी हो, छिलका हो। जो बीती हो। जग-बीती नहीं। आप-बीती हो। हड्ड बीती। बाक़ी सब झूट। दिखलावा। बहलावा।

    आज की बातें याद आरही हैं। बीती बातें। बिसरी बातें। साँप गुज़र गए। लकीरें रह गईं। लकीरें ही लकीरें। साँप तो सिर्फ़ डराते हैं। फुंकारते हैं। लकीरें काटती हैं। डसती हैं, पता नहीं, ऐसा क्यों होता है। लकीरों ने मुझे छलनी कर रखा है। चलती हैं। चले जाती हैं। जैसे धार चलती है। एक ख़त्म होती है दूजी शुरू होजाती है।

    आपी की बैठक में हम तीन थीं। पीली, रूपा और मैं। पीली बड़ी, रूपा मंझली और मैं छोटी। पीली में बड़ी आन थी। पर मान था। उस आन में छब थी। सुंदरता भरा ठहराओ था। यूं रोब से भरी रहती जैसे मुटियार रस भरी रहती है। मूर्ती समान।

    रूपा सुर ही सुर थी। तारों से बनी थी। उसके बंद बंद में तार लगे थे। सुरतियाँ स्मृतियां। और वो गूँजते मद्धम में गूँजते और फिर सुनने वालों के दिलों को झुला देते। तीजी मैं थी। आपी कहती थी, सुनहरे, तुझमें दुख की भीग है। तो भिगो देती है। ख़ुद भी डूब जाती है दूजे को भी डुबो देती है। पगली दूजे को डुबोया कर, ख़ुद डूबा कर। मुझे तुझसे डर आता है सुनहरे। किसी दिन तू हम सबको ले डूबे।

    आपी की बैठक कोई आम बैठक थी कि जिसका जी चाहा मुँह उठाया और चला आया। बैठक पर धन-दौलत का ज़ोर तो चलता ही है, बैठक पर आपी ने बरताव का ऐसा रंग चला रखा था कि ख़ाली धन-दौलत का ज़ोर चलता था। नौ दौलतिए आते थे। पर ऐसे बदमज़ा हो कर जाते कि फिर रुख़ करते। आपी की बैठक में निगाहें नहीं चलती थीं। उसने हमें समझा रखा था कि लोग निगाहों पर उछालेंगे तो पड़े उछालें। लड़कियो तुम उछलना। जो निगाहों पर उछल जाती हैं वो मुँह के बल गिरती हैं। और जो गिर गई वो समझ लो, नज़रों से गिर गई। फिर अपने जोगी रही दूसरों जोगी।

    आपी की बैठक में नज़रें नहीं चलती थीं। कान लगे रहते थे। दिल धड़कते थे। वहां मिलाप का रंग होता था। बिरहा का होता। रंग-रलियाँ नहीं होती थीं। वहां तमाशा होता तमाशबीन।

    मुझे वो दिन याद आते हैं जब हमारे हाँ ठाकुर बैठक लगती थी। दो महीने में एक बार ज़रूर लगती थी। ठाकुर की बैठक लगती तो कोई दूजा नहीं सकता था। सिर्फ़ ठाकुर के संगी साथी।

    ठाकुर भी तो अजब था। ऊपर से देखो तो रीछ। ताक़त से भरा हुआ। अंदर झाँको तो बच्चा। नर्म नर्म, गर्मगर्म। वैसे था आन भरा। संगत का रसिया। यूं लगता जैसे भीतर कोई लगन लगी हो। धूनी रमी हो। आरती सजी हो।

    ठाकुर की हमारे हाँ बड़ी क़दर थी। आपी इज़्ज़त करती थी। भरोसा करती थी। ठाकुर ने भी कभी नज़र उछाली थी। झुकाए रखता। पीता ज़रूर था, पर ऐसी कि जूँ-जूँ पीता जाता उल्टा मद्धम पड़ता जाता। आँख की चमक गुल हो जाती। आवाज़ की कड़क भीग जाती। उसका नशा ही अनोखा था। जैसे बोतल का हो, भीतर का हो। बोतल एक बहाना हो। बोतल चाबी हो भीतर के पट खोलने की।

    डरो सखियो डरो। भीतर के नशे से डरो। भीतर के नशे के सामने बोतल का नशा यूं हाथ जोड़े खड़ा है जैसे राजा के रूबरू नीच खड़ा हो। बोतल का ख़ाली सर चकराता है।भीतर का मन का झूलना झुला देता है। डरो सखियो डरो भीतर के नशे से डरो। बोतल का तो काम काज जोगा नहीं छोड़ता। भीतर का किसी जोगा नहीं छोड़ता। ख़ुद जोगा भी नहीं। मुझे क्या पता था कि ठाकुर के नशे का रेला मुझे भी ले डूबेगा।

    हाँ, तो उस रोज़ ठाकुर की बैठक हो रही थी। बोल थे, गांठरी मैं कौन जतन कर खोलूं। मोरे पिया के जिया में पड़ी रही। गीत ने कुछ ऐसा समां बांध रखा था कि ठाकुर झूम-झूम जा रहा था। फिर कहो, फिर बोलो का जाप किए जा रहा था। जाने किस गिरह को खोलन की आरज़ू जागी थी। अपने मन या महबूब के मन की। समय बीता जा रहा था। समय की सुध-बुध रही थी। कभी कभी ऐसा भी होता है। समय जीवन से निकल जाता है कि कौन हैं, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं। किसी बात की सुध-बुध नहीं रहती। उस रोज़ वो समय ऐसा ही समय था।

    दफ़्अतन घड़ी ने तीन बजाये। आपी हाथ जोड़े उठ बैठी। बोली, शमा करो, ठाकुर जी। माफ़ी माँगती हूँ, हमारा समय बीत गया। अब बैठक ख़त्म करो।

    ठाकुर पहले तो चौंका, फिर मुस्काया, आपी वो बोला, अभी तो रात भीगी है। आपी बोली, ठाकुर हम सूखे परों वाले पंछी हैं। जब रात भीग जाती है तो हमारा समय बीत जाता है। जो हमारे पर भीग गए तो उडारी रहेगी। फ़नकार में उडारी रहे तो बाक़ी रहा क्या? ठाकुर ने बड़ी मिन्नतें कीं। आपी मानी।

    महफ़िल टूट गई तो हम तीनों आपी के गिर्द हो गईं। आपी, ये समय का गोरख धंदा क्या है?

    आपी बोली, लड़कियो समय बड़ी चीज़ है। हर काम का अलग समय बना है। रात को गाओ बजाओ, पियो-पिलाओ, मिलो-मिलाओ, मौज उड़ाओ। बस तीन बजे तक। फिर भोर समय उसका समय है। उसका नाम जपो, उसे पुकारो, फ़र्याद करो, दुआएं माँगो, सज्दे करो। उस समय में तुम ऐश नहीं कर सकते। गुनाह नहीं कर सकते। क़त्ल नहीं कर सकते। ये धंदा जो हमारा है उसके समय में नहीं चल सकता। उसके समय में पांव धरना। उसने बुरा माना तो मारी जाओगी। जो वो राज़ी हो गया तो भी मारी जाओगी। और देखो उसके समय के नीड़े नीड़े भी ऐसा गीत गाना जो उसे पुकारे। भजन छेड़ना। डरो कहीं वो तुम्हारी पुकार सुनकर हुंकारा भर दे।

    फिर वो दिन आगया जब मैंने अनजाने में समय का बंधन तोड़ दिया। उस रोज़ ठाकुर आए। आपी से बोले, बाई कल ख़्वाजा का दिन है। ख़्वाजा की नयाज़ सारे गांव को खिलाऊंगा। आज रात ख़्वाजा की महफ़िल हो गई उधर हवेली में। सिर्फ़ अपने होंगे, घर के लोग। तुझे लेने आया हूँ, चल मेरे साथ मेरे गांव।

    आपी सोच में पड़ गई। बोली, रूपा माँदी है। वो तो नहीं जा सकेगी। किसी और दिन रख लेना नज़र नयाज़।

    ख़्वाजा का दिन मैं कैसे बदलूँ? वो बोला।

    तो किसी और मंडली को ले जा।

    ऊँहूँ ठाकुर ने मुँह बना लिया, ख़्वाजा की बात होती तो ले जाता। उनका नाम लेने के लायक़ मुख तो हो।

    मैं किस लायक़ हूँ जो उनका नाम मुँह पर लाऊं।

    बस इक तेरी ही बैठक है बाक़ी जहां पवित्रता है। जहांं जिस्म का नहीं मन का ठिकाना है।

    आपी मजबूर हो गई। उसने रूपा का ध्यान रखने के लिए पीली को वहां छोड़ा और मुझे लेकर ठाकुर के गांव चली।

    रात भर वहां हवेली में ख़्वाजा की महफ़िल लगी। वो तो घरेलू महफ़िल थी। ठाकुर की बहनें, बहुएं, बेटियां, ठाकुरानी सब बैठे थे। वो तो समझ लो भजन मंडली थी और ख़्वाजा के गीत, ख़्वाजा मैं तो आन खड़ी तोरे द्वार से शुरू हुई थी।

    आधी रात के समय महफ़िल इतनी भीगी कि सबकी आँखें भर आईं। दिल डोले, आपी का डूब ही गया। ठाकुर उसे महफ़िल से उठा कर अंदर ले गया, शर्बत शीरा पिलाने को। फिर वहीं लिटा दिया। फिर ख़्वाजा के गीत चले तो मैं भी भीग गई। आँखें भर भर आईं। मैं हैरान, मैं तो कुछ मांग नहीं रही। मैं तो इल्तिजा नहीं कर रही। मैं तो इक ताजिर हूँ। पैसा कमाने के लिए आई हूँ। मेरी आँखें क्यों भर भर आईं ख़्वाहमख़ाह। सो मैं बिना सोचे गाए चली गई। आँखें भर भर आती रहीं। दिल को कुछ-कुछ होता रहा। पर मैं भीग भीग कर गाती रही। समय बीत गया और मुझे ध्यान ही आया कि मैं उसके समय में पांव धर चुकी हूँ। आपी थी नहीं जो मुझे टोकती।

    और फिर मुझे क्या पता था कि ख़्वाजा कौन है। मैंने तो सिर्फ़ नाम सुन रखा था। उसके गीत याद कर रखे थे। मैं तो सिर्फ़ ये जानती थी कि वो ग़रीबनवाज़ है। मैं तो ग़रीब थी। मुझे क्या पता था कि मुझे भी नवाज़ देगा। ख़्वाह-मख़ाह, ज़बरदस्ती। मुझे क्या पता था कि उसमें इतनी भी सुध-बुध नहीं कि कौन पुकार रहा है। कौन गा रहा है। कौन मँगता है। कौन ख़ाली झोली फैला रहा है। कौन भरी झोली समेट रहा है। मैं तो यही सुनती आई थी कि दुखी लोग पुकार पुकार कर हार जाते हैं, पर कोई सुनता नहीं। मुझे क्या पता था कि इतना दयालू है, इतना नीड़े है। इतने कान खड़े रखता है।

    फिर ठाकुर बोला, सुनहरी बाई, बस इक आख़िरी फ़र्माइश, ख़्वाजा पिया मोरी रंग दे चुनरिया। ऐसी भी रंग दे रंग छूटे। धोबिया धोए जाये सारी उमरिया।

    फिर मुझे सुध-बुध रही। ऐसी रंग पिचकारी चली कि मैं भीग गई। और में ही नहीं सारी महफ़िल रंग रंग हो गई। अंग अंग भीगा। ख़्वाजा ने रंग घाट बना दिया।

    घर पहुंची तो गोया मैं, मैं थी। दिल रोया रोया, ध्यान खोया खोया। किसी बात में चित्त लगता। बैठक बेगाना दिखती, साज़ में तरब रहा। सारंगी रोये जाती। उस्ताद नक्कू ख़ां बजाते पर वो रोये जाती। तबला सर पीटता, घुंघरू कहते पांव में डाल और बन को निकल जा। वहां उसका झूमर नाच जो पत्ते पत्ते डाल डाल से झांक रहा है।

    रोज़ दिन में तीन-चार बार ऐसी रिक़्क़त तारी होती कि भें भें कर रोती। फिर हाल खेलने लगती। पीली हैरान, रूपा का मुँह खुला, आपी चुप, ये क्या हो रहा है। जब आठ दिन यही हालत रही बल्कि और बिगड़ गई तो आपी बोली, बस पुत्र, तेरा इस बैठक से बंधन टूट गया। दाना-पानी खत्म हो गया। तूने उसके समय में पांव धर दिया। उसने तुझे रंग दिया। अब तू इस धंदे जोगी नहीं रही।

    पर कहाँ जाऊं आपी? इस बैठक से बाहर पांव धरने की कोई जगह भी हो मेरे लिए।

    जिसने बुलाया है उसके दरबार में जा। रूपा बोली।

    उस भीड़ में जाये, आपी बोली, ये लड़की जाये जिसका सुनहरी पंडा कपड़ों से बाहर झाँकता है। नहीं, ये कहीं नहीं जाएगी। इसी कोठड़ी में रहेगी। बैठक में पांव नहीं धरेगी।

    फिर पता नहीं क्या हुआ। रिक़्क़त ख़त्म हो गई। दिल में इक जुनून उठा कि किसी की हो जाऊं। किसी एक की। तन-मन धन से उसी की हो जाऊं, हो रहूं। वो आए तो उसके जूते आतारुं, पंखा करूँ। पांव दाबूं, सर में तेल की मालिश करूँ। उसके लिए पकाऊं, मेज़ लगाऊँ, बर्तन रखूं। उसकी बनियानें धोऊँ, कपड़े इस्त्री करूँ। आरसी का कोल बनाऊं फिर सिरहाने खड़ी रहूं कि कब जागे, कब पानी मांगे।

    एक दिन आपी बोली, अब क्या हाल है धीए? मैंने रो-रो के सारी बात कह दी कि कहते हैं किसी एक की हो जा।

    बोली, वो कौन है? कोई नज़र में है क्या?

    ऊँह। कोई नज़र में नहीं।

    नाक नक़्शा दिखता है कभी?

    नहीं आपी।

    कोई बात नहीं, वो बोली, जो खूँटी पर लटकाना मक़सूद है तो आप खूँटी भेजेगा।

    दस एक दिन के बाद जब बैठक राग रंग से भरी हुई थी तो मेरी कोठड़ी का दरवाज़ा बजा। आपी दाख़िल हुई, बोली, ख़्वाजा ने खूँटी भेज दी। अब बोल क्या कहती है?

    कौन है? मैंने पूछा।

    कोई ज़मींदार है। अधेड़ उम्र का है। कहता है बस एक बार बैठक में आया था। सुनहरी बाई को सुना था। जब से अब तक उसकी आवाज़ कानों में गूँजती है। दिल को बहुत समझाया। तवज्जो बटाने के बहुत जतन किए। कोई पेश नहीं गई। अब हार के तेरे दर पर आया हूँ। बोल तू क्या कहती है? मुँह मांगा दूँगा।

    मैंने कहा, दे दे। साल के लिए बख़्श दे। जैसी तेरी मर्ज़ी। आपी हँसने लगी। फिर बोली, चल बैठक में उसे देख ले एक नज़र।

    ऊँहूँ मैंने सर हिलाया, नहीं आपी। उन्होंने भेजा है तो ठीक है। देखने का मतलब।

    कितनी देर के लिए मानूँ?

    जीवन भर के लिए।

    सोच ले, जुआ बाश निकला तो?

    पड़ा निकले। कैसा भी है जैसा भी निकले।

    अगले दिन बैठक में हमारा निकाह हो गया। ज़मींदार ने पैसे का ढेर लगा दिया। आपी ने रद्द कर दिया लौटा दिया। बोली, सौदा नहीं कर रही। अपनी धी विदा कर रही हूँ। और याद रख ये ख़्वाजा की अमानत है, सँभाल कर रखियो।

    हवेली यूं उजड़ी थी जैसे देव फिर गया हो।

    वैसे तो सभी कुछ था, साज़ो सामान था। आराइश थी, क़ालीन बिछे हुए थे। सोफ़े लगे हुए थे। क़द-ए-आदम आईने, झाड़ फ़ानुस सभी कुछ। फिर भी हवेली भायं-भायं कर रही थी।

    बरामदे में आराम कुर्सी पर छोटी चौधरानी बैठी हुई थी। सामने तिपाई पर चाय के बर्तन पड़े थे। मगर उसे ख़बर ही थी कि चाय ठंडी हो चुकी है। उसे तो ख़ुद की सुध-बुध थी कि कौन है, कहाँ है, क्यों है।

    ऊपर से शाम रही थी। समय को समय टकराती। उदासियों के झंडे गाड़ती। यादों के दीये जलाती। बीती बातों के अलाप गुनगुनाती। दबे पाँव, मद्धम। यूं जैसे पायल की झनकार बैरनिया हो।

    दूर, अपने क्वार्टर के बाहर खाट पर बैठे हुए चौकीदार की निगाहें छोटी चौधरानी पर जमी हुई थीं। हुक़्क़े का सोंटा लगाता और फिर से छोटी चौधरानी को देखने लगता। यूं जैसे उसे देख देखकर दुखी हुआ जा रहा हो।

    दूसरी जानिब घास के प्लाट के कोने पर बूढ़ा माली पौदों की तराश-ख़राश में लगा था। हर दो घड़ी के बाद सर उठाता और छोटी चौधरानी की तरफ़ टकटकी बांध कर बैठ जाता। फिर चौंक कर लंबी ठंडी सांस भरता और फिर से काट छांट में लग जाता।

    जन्नत बीबी, जो छोटी चौधरानी का खाना पकाती थी, दो तीन बार बरामदे के परले किनारे पर खड़ी हो कर उसे देख गई थी। जब देखती तो उसकी आँखें भीग भीग जाती थीं। पल्लू से पोंछती फिर लौट जाती।

    अरे नौकर कमीन छोटी चौधरानी पर जान छिड़कते थे। उसके ग़म में घुले जा रहे थे। लेकिन साथ ही वो उस पर सख़्त नाराज़ भी थे। उसने अपने पांव पर ख़ुद कुल्हाड़ी क्यों मारी थी? क्यों ख़ुद को दूजों का मुहताज बना लिया था? क्यों? अपनी औलाद होती तो फिर भी सहारा होता। अपनी औलाद भी तो थी नहीं।

    जब चौधरी मरने से पहले बक़ाइमी होश-ओ-हवास अपनी आधी ग़ैर मनक़ूला जायदाद छोटी चौधरानी के नाम गिफ्ट कर गया तो उसे क्या हक़ था कि अपना तमाम हिस्सा बड़ी चौधरानी के दोनों बेटों में तक़सीम कर दे। अगर एक दिन बड़ी चौधरानी ने उसे हवेली से निकाल बाहर किया तो वो क्या करेगी? किस का दर दिखेगा?

    एक तरफ़ तो इतनी बेनियाज़ी कि इतनी बड़ी जायदाद अपने हाथ से बांट दी और दूसरी तरफ़ यूं सोचों में गुम तस्वीर बन कर बैठ रहती है। सारे ही नौकर हैरान थे कि छोटी चौधरानी किस सोच में खोई रहती है। चौधरी को मरे हुए तीन महीने हो गए थे। जब से यूंही हवास गुम क़ियास गुम बैठी रहती है। और फिर टूटती रात समय उसके कमरे से गुनगुनाने की आवाज़ क्यों आती है? किस ख़्वाजा पिया को बुलाती है? ख़्वाजा पिया मोरी लीजो खबरिया। कौन ख़बर ले? कैसी ख़बर ले? छोटी चौधरानी पर उन्हें प्यार ज़रूर आता था। पर उसकी बातें समझ में नहीं आती थीं। पता नहीं चलता था कि किस सोच में पड़ी रहती है।

    छोटी चौधरानी को सिर्फ़ एक सोच थी। अंदर से एक आवाज़ उठती। बोल तेरा जीवन किस काम आया? वो सोच सोच हार जाती, पर इस सवाल का जवाब ज़ह्न में आता। उलझे उलझे ख़याल उलझाते। मुझे चमन से उखेड़ा। बेल बना कर इक दरख़्त के गिर्द घुमा दिया और अब उस दरख़्त को उखेड़ फेंका। बेल मिट्टी में मिल गई। अब ये किस के गिर्द घूमे? बोल मेरा जीवन किस काम आया?

    दफ़्अतन उसने महसूस किया कि कोई उसके रूबरू खड़ा है। सर उठाया, सामने गांव का पटवारी खड़ा था।

    क्या है? वो बोली।

    मैं हूँ पटवारी, छोटी चौधरानी जी।

    तो जा, जा कर बड़ी चौधरानी से मिल। मुझसे तेरा क्या काम?

    आप ही से काम है। वो बोला।

    तो बोल क्या कहता है?

    गांव में दो दरवेश आए हैं। गांव वाले चाहते हैं उन्हें चंद दिन यहां रोका जाये। जो आप इजाज़त दें तो आपके मेहमानख़ाने में ठहरा दें।

    ठहरा दो। वो बोली।

    नौकर-चाकर, बंदोबस्त... वो रुक गया।

    सब हो जाएगा।

    पटवारी सलाम करके जाने लगा तो पता नहीं क्यों उसने सरसरी तौर पर पूछा, कहाँ से आए हैं?

    पटवारी बोला, अजमेर शरीफ़ से आए हैं। ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ के फ़क़ीर हैं। इक धमाका हुआ छोटी चौधरानी की बोटियां हवा में उछलीं।

    अगली शाम छोटी चौधरानी ने जन्नत बीबी से पूछा, जन्नत ये जो दो दरवेश ठहरे हुए हैं यहां, उनके पास गांव वाले आते हैं क्या?

    जन्नत बोली, लो छोटी चौधरानी, वहां तो सारा दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। बड़े पहुंचे हुए हैं, जो मुँह से कहते हैं हो जाता है।

    तो तैयार हो जा। जन्नत हम भी जाऐंगे, तू और मैं।

    चौधरानी जी वो मग़रिब के बाद किसी से नहीं मिलते।

    तू चल तो सही। चौधरानी ने ख़ुद को चादर में लपेटते हुए कहा, और देख, वहां मुझे चौधरानी कह कर बुलाना। ख़बरदार!

    जब वो मेहमानख़ाने पहुंचीं तो दरवाज़ा बंद था। जन्नत ने दरवाज़ा खटखटाया। कौन है? अंदर से आवाज़ आई। जन्नत ने फिर दस्तक दी। सफेद रेश बूढ़े ख़ादिम ने दरवाज़ा खोला। जन्नत ज़बरदस्ती अंदर दाख़िल हो गई। पीछे पीछे चौधरानी थी। सफ़ेद रेश घबरा गया। बोला, साईं बादशाह मग़रिब के बाद किसी से नहीं मिलते। वो उस कमरे में मशग़ूल हैं।

    हम साईं बादशाह से मिलने नहीं आए। छोटी चौधरानी बोली।

    तो फिर? सफ़ैद रेश घबरा गया।

    एक सवाल पूछना है। चौधरानी ने कहा।

    साईं बाबा इस समय सवाल का जवाब नहीं देंगे।

    साईं बाबा ने जवाब नहीं देना। उन्होंने पूछना है। वो बोली।

    किस से पूछना है? ख़ादिम बोला।

    उस से पूछना है जिसके वो बालिके हैं। ये सुनकर सफ़ेद रेश ख़ादिम सन हो कर खड़े का खड़ा रह गया।

    उनसे पूछो, छोटी चौधरानी ने कहा, एक औरत तेरे द्वार पर खड़ी पूछ रही है, ग़रीबनवाज़ बता कि मेरा जीवन किस काम आया?

    कमरे पर मनों बोझल ख़ामोशी तारी हो गई।

    छोटी चौधरानी बोली, कहो वो औरत पूछती है तूने बैठक के गमले से इक बूटा उखेड़ा। उसे बेल बना कर एक दरख़्त के गिर्द लपेट दिया कि जा उस पर निसार होती रह। वो रुक गई। कमरे की ख़ामोशी और गहरी हो गई। अब तूने उस दरख़्त को उखेड़ फेंका है। बेल मिट्टी में रुल गई। वो बेल पूछती है, बोल मेरा जीवन किस काम आया? ये कह कर वो चुप हो गई।

    तेरा जीवन किस काम आया। तेरा जीवन किस काम आया। सफ़ेद रेश ख़ादिम के होंट लरज़ने लगे।

    तो पूछती है तेरा जीवन किस काम आया? वो रुक गया। कमरे की ख़ामोशी इतनी बोझल हो गई कि सहारी नहीं जाती थी।

    मेरी तरफ़ देख, सफ़ेद रेश ख़ादिम ने कहा, सुनहरी बाई, मेरी तरफ़ देख कि तेरा जीवन किस काम आया। मुझे नहीं पहचानती? मेरा तेरा सारंगी नवाज़ था। देख मैं क्या था, क्या हो गया।

    छोटी चौधरानी से मुँह से एक चीख़ निकली, उस्ताद जी, आप? वो उस्ताद के चरण छूने के लिए आगे बढ़ी।

    ऐन उसी वक़्त मुल्हिक़ा कमरे का दरवाज़ा खुला। एक भारी भरकम नूरानी चेहरा बरामद हुआ।

    सुनहरी बीबी, वो बोला, मुझसे पूछ तेरा जीवन किस काम आया?

    छोटी चौधरानी ने मुड़ कर देखा, ठाकुर वो चिल्लाई।

    ठाकुर बोला, अब हमें पता चला कि सरकार ने हमें इधर आने का हुक्म क्यों दिया था। उसने सुनहरी बीबी के सामने अपना सर झुका दिया। बोला, बीबी हमें आशिर्बाद दे।

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    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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