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वकालत

MORE BYमिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई

    मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई

    अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

    वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।

    (1)

    चार साल का ज़िक्र है कि वो कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था कि सुबह के आठ बज गए थे मगर बिच्छौने से निकलने की हिम्मत पड़ती थी। लिहाफ़ में बैठे-बैठे चाय पी। दो मर्तबा ख़ानम ने लिहाफ़ घसीटा मगर उठना था उठा। ग़रज़ चाय पीने के बाद उसी तरह ओढ़े लपेटे बैठ कर सिगरेट सुलगाया ही था कि क्या देखता हूँ कि एक बिल्ली अलमारी के पीछे से झांक रही है!

    फ़ौरन उठा और दबे-पाँव दरवाज़े पर पहुंच कर उसको बंद कर दिया। दूसरे दरवाज़े को भी लपक कर बंद किया जब बिल्ली घिर गई तो हलक़ फाड़ कर चिल्लाया।

    ख़ानम दौड़ना... जल्दी आना... बिल्ली... बिल्ली, घेरी है।

    क्या है ? ख़ानम ने सेहन के उस पार से आवाज़ दी, अभी आई।

    ज़ोर से मैं फिर गला फाड़ कर चिल्लाया। बिल्ली घेरी है... बिल्ली... अरे बिल्ली... बिल्ली... क्या बहरी हो गई?

    ख़ानम को कबूतरों का बेहद शौक़ था और ये कमीनी बिल्ली तीन कबूतर खा गई थी। इलावा उसके दो मुर्ग़ियां,चार चूज़े और मक्खन दूध वग़ैरा अलैहदा। ख़ानम तो बौखलाई हुई पहुंची और काँपते हुए उसने मुझसे पूछ, क्या बिल्ली ?

    पकड़ ली! पकड़ ली!

    मैंने कहा, हाँ... घेर ली... बिल्ली बिल्ली...! जल्दी... ये कह कर मैंने ख़ानम को अंदर लेकर दरवाज़ा बंद कर लिया।

    ख़ानम की अम्माँ जान ने मना कर दिया है कि बिल्ली को जान से मत मारना, इधर बिल्ली का ये हाल कि रुई के गाले की मार से क़ाबू में नहीं आती। ज़रूरत ईजाद की माँ है और मैंने भी एक नई तरकीब निकाली है कि बिल्ली की भी अक़ल ठिकाने जाये और ख़ानम की अम्मां जान भी नाराज़ हों। वो ये कि कमरे को चारों तरफ़ से बंद कर के सिर्फ़ एक दरवाज़े के किवाड़ ज़रा से खोल दीजिए, सिर्फ़ इतना कि बिल्ली उसमें से निकल जाये और ख़ुद दरवाज़े के पास एक कुर्सी पर खड़े हो कर किवाड़ पर हाथ रखे अपनी बीवी से कहिए कि लकड़ी लेकर बिल्ली पर दौड़े और जब डर लगे तो लकड़ी को ताक कर बिल्ली के ऐसे मारे कि सीधी लैप में जा लगे और दूर ही से तकिए, जूते, गिलास, ज़रूरी मुक़द्दमों की मिसलें, ताज़ीरात-ए-हिंद, क़ानून-ए-शहादत, बाज़ाब्ता दीवानी और या उसी क़िस्म की दूसरी चीज़ें बिल्ली की तरफ़ फेंके और फिर भी जब कि कुछ लगे और कोई चीज़ भी बाक़ी रहे तो सिगरेट का डिब्बा मअ सिगरेटों के ताक के बिल्ले के मारे। लाज़िमी है कि एक सिगरेट तो बिल्ली के ज़रूर ही लगेगा। बिल्ली तंग आकर ख़्वाह-मख़ाह उसी दरवाज़े से भागेगी जहां आप उसके मुंतज़िर किवाड़ को पकड़े हैं। जब आधी बिल्ली दरवाज़े के बाहर हो और आधी अंदर तो ज़ोर से दरवाज़ा को बंद कर दीजिए और बिल्ली को दरवाज़े ही में दाब लीजिए। बीवी से कहिए कि दरवाज़ा ज़ोर से दबाए रहे और ख़ुद एक तेज़ धार उस्तरे से बिल्ली की दुम ख़ियार तर की तरह काट लीजिए। फिर जो दुम कटी आपके मुँह की तरफ़ रुख भी कर जाये तो मेरा ज़िम्मा।

    चुनांचे मैंने भी यही किया उधर बिल्ली दरवाज़े के बीच में आई और फिर ज़ोर से चिल्लाया, ख़ानम लीजियो! ख़ानम लीजियो! ख़ानम दौड़ कर आई। मैंने कहा कि, तुम दरवाज़ा दाबो मगर ज़ोर से, वर्ना बिल्ली लौट कर काट खाएगी, ग़रज़ ख़ानम ने ज़ोर से दरवाज़ा दबाया, बिल्ली तड़प रही थी और अजीब अजीब क़िस्म की आवाज़ें निकाल रही थी, उधर मैं उस्तरा लेकर दौड़ा बस एक हाथ में दुम खट से साफ़ उड़ा दी।

    दुम तो बिल्कुल साफ़ उड़ गई मगर बदक़िस्मती मुलाहिज़ा हो, दफ़्तर का वक़्त था और मुंशी जी एक मुक़द्दमे वाले को फांसे ला रहे थे। बिल्ली को इसी तरह दबा हुआ देखकर सीढ़ियों पर बेतरह लपके कि ये माजरा क्या है। ऐन उस वक़्त जब कि मैंने दुम काटी इंतिहाई ज़ोर लगा कर बिल्ली तड़प उठी और गों फ़िश कर के मुंशी जी पर लगी और वो मुवक्किलों पर! ग़लग़प!

    ख़ानम के मुँह से मुंशी जी की झलक देखकर एक दम से निकला, मुंशी जी। मेरे मुँह से निकला, मुवक्किल! मुक़द्दमा...

    ख़ानम ने फिर कहा, मुक़द्दमा...

    इतने में मुंशी जी ने दरवाज़े में सर डाल कर अंदर देखा। मेरे एक हाथ में उस्तरा था और दूसरे हाथ में बिल्ली की दुम! ख़ानम बराबर खड़ी थी। मुंशी जी आग बगूला हो गए, अंदर आए ग़ुस्सा के मारे उनकी शक्ल चिड़ी के बाशाह की सी थी।

    लाहौल वला क़ुवः मुट्ठी भींच कर मुंशी जी बोले, मुवक्किल। और फिर दाँत पीस कर बहुत ज़ोर लगाया मगर निहायत आहिस्ता से कि मुवक्किल जो बाहर खड़ा था वो सुन ले, मुवक्किल... लाहौल वला क़ुवः... कोई मुक़द्दमा आएगा... ये वकालत हो रही है? मुंशी जी ने हाथ से कमरे की लोट-पोट हालत को देखकर कहा।

    ख़ानम ग़ायब हो चुकी थी।

    मैं भला उसका क्या जवाब देता।

    ये वकालत हो रही है। मुंशी जी ने फिर उसी लह्जे में कहा, 500 का मुक़द्दमा है। जल्दी हाथ से झनक कर कहा।

    पाँच सौ रुपये का नाम सुनकर में भी चौंका। रूपों का ख़्याल आना था कि उस्तरा और बिल्ली की दुम अलग फेंकी और दौड़ कर दूसरी तरफ़ से दफ़्तर का दरवाज़ा खोला।

    मुंशी जी ने जल्दी से मुवक्किलों को बिठाया और दौड़ कर मुझसे ताकीद की कि फ़ौरन आओ पाँच सौ रुपये मिलने वाले हो रहे थे और जूं तूं कर के जल्दी जल्दी मैंने कोट पतलून पहना क्योंकि मुंशी जी फिर आए और चलते नहीं कह कर मेरे आए होश उड़ा दिए। मैं बग़ैर मौज़े पहने स्लीपर में चला आया बल्कि यूं कहिए कि मुंशी जी मुझे खींच लाए। निहायत ही संजीदगी से मैंने मुवक्किलों के सलाम का जवाब दिया। एक बड़ी तोंद वाले मारवाड़ी लाला थे और उनके साथ दो आदमी थे जो मुलाज़िम मालूम होते थे। लाला जी बैठ गए और उन्होंने अपने मुक़द्दमें की तफ़सील सुनाई।

    वाक़िया दरअसल यूं था कि किसी समझदार आदमी ने लाला जी को उल्लू की गाली दी थी। गाली दोहराना ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब है नाज़रीन की आगाही के लिए बस इतना काफ़ी है कि इस गाली की रु से लाला साहिब की वलदीयत उल्लू हुई जाती थी।

    मैंने लाला जी से बहुत से सवालात किए और ख़ूब अच्छी तरह ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद उनसे कहा, मुक़द्दमा नहीं चल सकता।

    क्यों? लाला जी ने एतराज़ किया।

    इस वजह से, मैंने कहा। इस वजह से नहीं चल सकता कि अव्वल तो आपके पास कोई गवाह नहीं और फिर दूसरे ये के तमाम हाईकोर्ट इस बारे में मुत्तफ़िक़ हैं कि इस क़िस्म के अलफ़ाज़ रोज़ाना आला तबक़ा के लोग बातचीत के दौरान में आज़ादी से इस्तिमाल करते हैं और इससे तौहीन नहीं होती।

    लाला जी कुछ बर्दाशता खातिर हो कर मुंशी जी से बोले, वाह जी तुम भी हमें कहाँ ले आए, हमें तो ऐसे वकील के पास ले चलो जो मुक़द्दमा चला दे।

    मेरी नज़र मुंशी जी पर पड़ी और उनकी मेरे ऊपर। वो आग बगूला हो रहे थे मगर ज़ब्त कर रहे थे। नज़र बचा कर उन्होंने झुँझला कर मेरे ऊपर दाँत पीसे फिर एक दम से सामने की अलमारी पर से बिला किसी इम्तियाज़ दो तीन किताबें जो सब से ज़्यादा मोटी थीं मेरे सामने टेक दीं और बोले,

    वकील साहिब, लाला साहिब अपने ही आदमी हैं ज़रा किताबों को ग़ौर से देखकर काम शुरू कीजिए। ये कहते हुए मेरे सामने डिक्शनरी खोल कर रख दी क्योंकि इस किताब की जिल्द भी सबसे मोटी थी।

    फिर लाला साहिब की तरफ़ मुस्कुरा कर मुंशी जी ने ऐनक के ऊपर से देखते हुए कहा, लाला साहिब माफ़ कीजिएगा, ये भी दुकानदारी है और... फिर... आपका मुक़द्दमा... जी सौ में चले हज़ार में चले (ये मुक़द्दमा बिल्कुल चला और मैं हार गया) फिर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर मुंशी जी उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले।

    वकील साहिब, ये लाला साहिब घर ही के आदमी हैं। मेरी उनकी 18 बरस से दोस्ती है कोई आज की मुलाक़ात थोड़ी है।

    और वाक़ई लाला जी के मुंशी जी से निहायत ही गहरे और देरीना ताल्लुक़ात थे और वो ये कि मुंशी जी उस सड़क पर अठारह बरस से चलते थे जिस पर लाला साहिब की दुकान थी। चुनांचे लाला साहिब ने इन देरीना ताल्लुक़ात की तस्दीक़ की। मैंने इस दौरान डिक्शनरी को लापरवाही से देख रहा था। मेरे सामने हुरूफ़ (बी) की फ़हरिस्त थी। मअन लफ़्ज़ (बर्ड) यानी चिड़िया पर मेरी नज़र पड़ी और फिर लाला जी पर। क़तई ये लाला जी चिड़िया था कम अज़ कम मेरे लिए और वो भी सोने की।

    उनसे मुझे पाँच सौ रुपये वसूल होने वाले थे! मैंने वाक़ई बड़ी हिमाक़त की थी जो उनसे कह दिया था कि मुक़द्दमा नहीं चल सकता। ये मैंने महसूस किया।

    मुझे ख़ामोश देखकर लाला साहिब पज़मुर्दा हो कर बोले, वकील साहिब तो कुछ बोलते नहीं।

    उनके वालिद ख़ान बहादुर हैं। मैंने मुंशी जी से सवाल किया।

    लाला जी ने कहा ये हमारे मुहल्ले में ख़ुद एक राय बहादुर रहते हैं। लाला जी ने ये इस तरह फ़ख्रिया कहा गोया वो ख़ुद राय बहादुर के लड़के हैं।

    मैंने मौक़ा पर कहा, लाला साहिब आपके गवाह कोई नहीं हैं इसका तो...

    मुंशी जी ने मेरी बात काट कर कह, इस बारे में सब तय हो चुका है! चार गवाह बना लिए जाऐंगे।

    तो फिर क्या है, मैंने इत्मिनानिया लहजे में कहा।

    इसके बाद ही लाला जी पर रोग़न क़ाज़ की ख़ूब ही मालिश की गई। इस सिलसिले में लाला जी से कुछ अजीब ही तरह के बड़े गहरे ताल्लुक़ात क़ायम हो गए क्योंकि लाला जी मारवाड़ी थे और में भी मारवाड़ी हूँ और फिर मेरे वालिद साहिब मारवाड़ की उस रियासत में जहां लाला जी की लड़की ब्याही गई है, मुलाज़िम हैं।

    मेरे पैर में सर्दी महसूस हो रही थी। दो मर्तबा मुलाज़िम लड़के को आवाज़ दे चुका था। मोज़े पलंग के पास कुर्सी पर पड़े थे। लाला जी ने मुंशी जी की तजवीज़ पर कहा कि नौकर आप ही का है। कमरा भी बराबर ही था मगर वो मारवाड़ी मुलाज़िम था जब वहां पहुंचा तो पुकार कर उसने पूछा, क्या दोनों लाऊँ?

    लाहौल वला क़ुवः, मैंने अपने दिल में कहा, ये लाला जी का नौकर भी अजीब अहमक़ है मगर मैं ख़ुद मारवाड़ी था और जानता था कि ये इस मुल्क का रहने वाला है जहां उर्दू ठीक नहीं समझते हैं मगर फिर भी इस हिमाक़त पर तो बहुत ही ग़ुस्सा आया क्योंकि आप ख़ुद ग़ौर कीजिए कि मोज़े मंगाए और पूछता है कि दोनों लाऊँ, पुकार कर मुंशी जी ने कहा, हाँ दोनों।

    आप यक़ीन मानिए कि वो कमरे से बजाय मोजों के दोनों उगालदान लिए चला आता है, मैं अब उसकी सूरत को देखता हूँ कि हँसूँ या रोऊँ, अभी अभी ये तय करने नहीं पाया था कि लाला जी मुरादाबादी क़लई के उगालदान को शायद गुलदान समझ कर देखते हैं। उसको मुट्ठी में इस तरह पकड़ते हैं जैसे मदारी डुगडुगी को, यहां तक भी ग़नीमत है मगर क़िस्मत तो देखिए कि क़ब्ल इसके कि मुंशी जी उनके हाथ से उगालदान को लें और मुलाज़िम को उसकी ग़लती बताएं लाला जी ने उसके अंदर झांक कर देखा और कराहीयत मगर निहायत संजीदगी से उसको ज़मीन पर रखते हुए बोले, बासन तो घड़ाएं चोखा है मगर किसी बेटी रे बाप ने इसमें थूक दिया है।

    इन्ना लिल्लाहे इन्ना इलैहे राजेऊन! वो अपना हाथ पाक करने के लिए ज़मीन पर रगड़ रहे थे और मैं अपनी क़िस्मत को रो रहा था कि ख़ुदा ने पाला डाला तो ऐसों से क्योंकि घड़ाएं चोखा के मअनी हैं बहुत अच्छा और बेटी रे बाप के मअनी हैं, बेटी का बाप, यानी परले दर्जे का अहमक़ और बदतमीज़। ये सब कुछ था मगर पाँच सौ रुपये! मुझे लाला जी महज़ इन्ही रूपों की वजह से परी मालूम हो रहे थे और क्यों हों।

    उधर लाला जी गए और इधर मुंशी जी ने ऐनक के ऊपर से मेरे ऊपर निगाहें तिरछी तिरछी डालीं, बड़े लाल पीले हो कर उन्होंने कहा,

    मैं नौकरी नहीं कर सकता... आप वकालत कर चुके हैं... कर चुके... बस-बस हो चुकी... देख लिया...

    नाई रे नाई कितने बाल? जो हैं साहिब जी सामने आए जाते हैं... कहीं ऐसे ही वकालत होती है...? उधर फिर... मैंने तंग आकर कहा, तो आख़िर क्या ग़ज़ब हो गया।

    झल्लाकर मुंशी जी बोले, जी हाँ... मारवाड़ी का मुक़द्दमा और आप बिल्ली की दुम काट रहे हैं... और जो वो देख लेता तो...? हाँ... और ये! आपने ये कैसे कह दिया कि मुक़द्दमा नहीं चल सकता? मुंशी जी ने ये जुमला तेज़ हो कर कहा।

    मैं, इसलिए कि अव्वल तो गवाह नदारद और फिर दूसरे ये कि महज़ इतनी सी बात पर मुक़द्दमा...

    मुंशी जी झल्लाकर बोले, बस-बस... हो चुकी वकालत... आपको कैसे मालूम कि मुक़द्दमा नहीं चलेगा। हुँह इम्तिहान क्या पास किया कि समझे कि वकील हो गए, अरे मियां यहां तो ये हाल है कि मालूम कितने वकील बना दिये... बार बार कहता हूँ, और फिर वही बातें...। मुक़द्दमा भी चलेगा तो मुवक्किल से थोड़ी कह दिया जाता है कि तेरा मुक़द्दमा नहीं चलेगा।

    मैं क़ाइल हो रहा था वाक़ई मेरी ग़लती थी। मुंशी जी बुज़ुर्ग और हमदर्द थे। क़ानूनदानी से कुछ नहीं होता। बक़ौल उनके वकालत के पेच सीखना चाहिऐं, ये वकालत के पेच हैं! यानी अलफ़ाज़ दीगर मक... का... री...

    मैं क्या जवाब देता, क़ाइल था, माक़ूल था, सर हिला रहा था, हंसी रही थी और दिल में कह रहा था।

    कि आती है उर्दू ज़बां आते आते

    कमबख़्ती तो देखिए कि ख़ानम शीशे में से झांक रही थी और मुंशी जी की बातें सुनकर अकेली ही अकेली हंस रही थी। मेरी नज़र जो पड़ी तो मुझे भी बे-इख़्तियार हंसी आई और मैं एक दम से कमरे से भागा। ख़ुदा मालूम मुंशी जी क्या बड़बड़ाए इतना ज़रूर सुना... बदतमीज़ी... वकालत नहीं मुंशी जी ग़ुस्से में आकर चल दिए।

    मैं खाना खा ही रहा था कि एक मुक़द्दमे वाले ने पुकारा, ये एक मुवक्किल का लड़का था जिसका आज मुक़द्दमा था और उसने मुझसे कि, बाप ने ताकीद कर के कह दिया है कि मोटी वाली किताब ज़रूर लेते आना। मुक़द्दमा दीवानी का था, और मुझे फ़ौजदारी की एक किताब की आज कचहरी में ज़रूरत थी चुनांचे मैं ताज़ीरात-ए-हिंद देकर रवाना किया, ये भी करना पड़ता है वर्ना मुवक्किल साहिब मुक़द्दमा ख़िलाफ़ हो जाने की सूरत में तमाम इल्ज़ाम देते हैं कि किताब मोटी वाली कह देने पर भी लाए ख़्वाह आपको किताब की ज़रूरत हो या हो मगर मुवक्किल साहिब फ़रमाएं तो फिर कैसे ले जाइएगा।

    ज़रूरत पतली सी किताब की हो मगर आपको मोटी किताब ले जाना पड़ेगी।

    मैं अपनी क़ाबिलीयत पर दिल ही दिल में नाज़ाँ था और इसका सिक्का ख़ानम पर भी बिठाना चाहता था।

    कुछ सुनती हो, मैंने कहा, मेरे साथीयों में से अब तक किसी को पाँच सौ रुपये का मुक़द्दमा नहीं मिला, शायद क़ाइल हो कर ख़ानम उसके जवाब में मुस्कुराई और मैंने और रोब जमाया।

    तुम ख़ुद देखो कि इतनी जल्दी पाँच पाँच सौ रुपये के मुक़द्दमात आने लगे हैं, अब बताओ नौकरी अच्छी या ये वकालत?

    ख़ानम अपनी फ़िक्र में थीं और बोलीं, तो अपनी बात से फिर जाना आज शाम को कचहरी से आओ बंदे ज़रूर साथ हों दाम तय कर लेना और चुका कर लाना और... बात काट कर मैंने कहा, लेता आऊँगा... मैं... और देखो जब एक मुक़द्दमा बड़ा आता है यानी ज़्यादा फ़ीस का तो फिर उसके साथ साथ बड़े अच्छे मुक़द्दमे आते हैं और तार सा बंध जाता है।

    ख़ानम ने कहा, तो ज़रूर लेते आना, कल तक तो वो दे देगा आख़िर मारवाड़ी महाजन है उसके लिए पाँच सौ रुपये कौन सी बड़ी बात है।

    क़ाएदे से तो मुंशी जी ने उससे रुपया वसूल कर ही लिया होगा। मैंने सोचा कि बात दरअसल जनाब ये है कि मेरी हैसियत के नए वकील के पास अगर पाँच सौ रुपये का मुक़द्दमा जाये तो उसको ऐसा मालूम देता है कि ठंडे पानी से नहा रहे हैं, मतलब मेरा ये कि सांस कुछ ऊपर को खींचने लगती है। मैंने ख़ानम से फ़ौरन वादा कर लिया था कि कचहरी से वापसी में हीरे के बुँदे लेता आऊँगा। वो बुँदे उन्होंने हाल में बेहद पसंद किए थे लेकिन क़ाएदे से अब तक उनके लिए मेरी हैसियत को देखते हुए वो ख़रीदने की चीज़ थी बल्कि महज़ देखने की चीज़ थी। ख़ानम ने बार-बार इसरार से मैंने कहा।

    जान क्यों खाए जाती हो कहता भी हूँ कि लेता आऊँगा ज़रूर लेता आऊँगा ज़रूर बालज़रोर और कचहरी से सीधा बाज़ार जाऊँगा इतमीनान रखू।

    बावजूद इस क़दर इतमीनान दिलाने के भी ख़ानम मुझे कमरे के दरवाज़े तक हसब-ए-मामूल रुख़स्त करने जो आएं तो चलते चलते फिर ताकीद कर दी।

    मैं कचहरी पहुंचा। रास्ता में जितने भी नियम के दरख़्त मिले उनकी तरफ़ देखा तो ख़ानम की ख़्याली तस्वीर हीरे के बंदे पहने हुए नज़र आई। तबईत आज बेतरह ख़ुश थी, अपने को मैं ज़रा बड़े वकीलों में शुमार कर रहा था, कचहरी पहुंच कर सीधा मुंशी जी के पास पहुंचा, मुंशी जी ने मुझे देखकर नाक के नथुने फला लिए, मैंने ज़रा इधर उधर की काम की बातें पूछें तो मुँह बना बना कर जवाब दिए। मगर मुझे ख़ानम के बंदों की जल्दी पड़ी थी और मैंने मुंशी जी से आख़िर को पूछ लिया कि पाँच सौ रुपय में लाला जी कितने रुपय दिए गए और कितने बाक़ी हैं, किसी ने कहा है,

    बसा आरज़ू कि ख़ाक शुद

    आप मुश्किल से अंदाज़ा लगा सकेंगे कि मेरा क्या हाल हुआ जब मालूम हुआ कि मुक़द्दमा पाँच सौ का तो बे-शक था और है मगर पाँच सौ रुपय का नहीं है बल्कि दफ़ा ५०० का (ताज़ीरात-ए-हिंद) है।

    सदमा की वजह से मेरी गर्दन एक तरफ़ को ढलक गई और इस पर मुंशी जी का निहायत ही करख़त और तंज़िया लहजे में रेमार्क, जी।।। जी हाँ।।। पाँच सौ रुपय फ़ीस के मुक़द्दमे आपके लिए अब मैं हाइकोर्ट से मंगवाओंगा। अना लिल्लाह-ओ-अना एलिया राजावन।

    मेरा तमाम जोश-ओ-ख़ुरोश रुख़स्त हो गया और एक अजीब पसपाईत छा गई। जमाही लेकर सामने नियम की तरफ़ देखा बजाय ख़ानम के ख़्याली तस्वीर के दुकानदार की अलमारी में बंदे मख़मल की डिबिया में रखे इसी तरह चमक रहे थे।

    घर पहुंचा तो ख़ानम ने चुपके से आकर पीछे से आँखें बंद कर लें और फिर फ़ौरन ही मेरी दोनों जेबों में हाथ डाल कर कहा तुम्हें क़सम है कितने में मिले। अब आगे जाने दीजीए कि किस तरह मैंने ख़ानम को ग़लतफ़हमी से निकाल कर समझाया और क्या-क्या कोफ़त हुई है और ये सब कुछ अपनी ही हमाक़त से क्योंकि ज़रा ग़ौर करने पर मालूम हो गया कि इस किस्म के ख़्यालात ही दिल में मुझे ना लाना चाहिए थे। लाहौल वला क़ो।

    (2)

    दूसरे तीसरे रोज़ का ज़िक्र है कि एक पर-लुत्फ़ ऐट रुम था कुछ शनासा और दोस्त बाहर से भी इसी तक़रीब में आए थे जिनका ताल्लुक़ कॉलेज से था। उनमें से कुछ वकील भी थे। यहां वकीलों से बेहस है। उनमें से कुछ साहिबान ऐसे थे जिनसे मेरी बड़ी बे-तकल्लुफ़ी थी। मुझसे दो तीन साल पहले ईल एल्बी कर चुके थे फ़र्ज़ कीजीए कि उनमें से एक का नाम अलिफ़ और दूसरे का और तीसरे का था।

    मिस्टर अलिफ़ से सुबह मुलाक़ात हुई थी सख़्त परेशान थे। वकालत क़तई ना चलती थी कहने लगे यार क्या करूँ नौकरी की फ़िक्र में हूँ, मैंने कहा फिर? तो बोले कोई नौकरी भी नहीं मिलती।

    मेरी हालत पूछी तो मैंने भी कहा और हक़ीक़त बतला दी कि यार जब तक वालिद साहिब रुपय देते जाऐंगे में बराबर वकालत करता जाऊँगा।

    इसी तरह साहिब से भी मुलाक़ात एक और साहिब के हाँ हुई उनका पुतला हाल था बल्कि उनकी जेब से तो उम्दा उम्दा किस्म के वांटड इश्तिहारात की गड्डी की गड्डी निकली चूँकि मेरे गहरे दोस्त थे दो तीन इस में से छांट कर मुझे भी इश्तिहार दिए और फिर अर्ज़ी के बारे में ताकीद की कि रजिस्ट्री से भेजना। आज तक तो अर्ज़ियों में से एक का भी जवाब नहीं आया और ख़्वाह-मख़ाह रजिस्ट्रियों पर मेरे दाम गए।

    साहिब से भी मुलाक़ात हुई और उनका भी यही हाल था। मेरी इन तीनों हज़रात से बे-तकल्लुफ़ी थी लिहाज़ा मुझे असली हालात बताने में किसी ने ताम्मुल ना किया।

    शाम को ऐट होम के पर-लुत्फ़ जलसे में मेरी किस्म के बहुत से वकील अपने अपने बापों की कमाई से बनवाए हुए क़ीमती सूट ज़ेब-ए-तन किए केक और फल झाड़ रहे थे। हमउमर और हम-ख़याल और फिर हमपेशा जमा हुए तो यही सवाल पेश हो गया कि कहो भई कैसे चलती है। मैं नहीं अर्ज़ कर सकता कि ये सवाल किस क़दर टेढ़ा है। आपको पहचान बताता हूँ कि नया वकील इस सवाल का जवाब देने से पहले अगर ज़रा भी खाँसे या इधर उधर देखे तो जो आमदनी वो अपनी बताए उस को बेधड़क दस पर तक़सीम कर दें बिलकुल सही जवाब निकल आएगा। नए वकील इस सवाल से इस क़दर घबराते हैं (ख़ुसूसन में) कि अगर वो ससुराल जाते हूँ तो महिज़ इस सवाल से बचने के लिए बतौर पेशबंदी यही कह दिया जाता है कि जनाब एक मुक़द्दमा में जा रहा हूँ। आप ही बताईए कि फिर आख़िर क्या बताया जाये।

    ग़रज़ यही सवाल कि कैसी चलती है? पेश किया गया और मिस्टर को जवाब देना पड़ा। मिस्टर ने चेहरे को किसी क़दर मटोर कर के कहा। ख़ुदा का शुक्र है अच्छा काम चल रहा है।

    कितना औसत पड़ जाता है? मिस्टर ने पूछा।

    मिस्टर ने ज़रा गला साफ़ कर के खाँसते हुए कहा, क्या औसत होता है... भई बात तो ये है कि नया काम है कुछ भरोसा नहीं, किसी महीने में कम तो किसी में ज़्यादा, इतना कह के कुछ समझ कर ख़ुद ही कहा... एक महीने में ऐसा हुआ कि सिर्फ़ बत्तीस रुपये पौने नौ आने आए...!

    एक क़हक़हा लगा और एक साहिब ने ज़ोर से कहा, पौने नौ आने कम ज़्यादा।

    मिस्टर ने जल्दी से लोगों की ग़लतफ़हमी से इस तरह निकाला... एक में तो साढे़ बत्तीस रुपये आए लेकिन दूसरे महीने में सतरह रोज़ के अंदर अंदर दो सौ छियालीस।

    मिस्टर नीज़ औरों ने ग़ौर से मिस्टर की आमदनी का मुआइना करते हुए कहा, तो औसत आपका दो सौ रुपया माहवार का पड़ता था।

    मिस्टर ने नज़र नीची किए नारंगी की फांक खाते हुए कहा, जी मुश्किल से... दो सौ से कम ही समझिए बल्कि एक कम दो सौ कहिए, इस तरह सवाल से अपनी जान छुड़ा कर अब मिस्टर को पकड़ा और कहा, कहो यार तुम्हारा क्या हाल है?

    अब मिस्टर की तरफ़ सबकी आँखें उठ गईं उनकी हालत भी क़ाबिल-ए-रहम थी, उनको भी खांसी आई और उनका भी औसत दो सौ पौने दो सौ के क़रीब पड़ा।

    मिस्टर अलिफ़ का नंबर आया तो कम-ओ-बेश इतना ही उनका भी हिसाब पड़ता था मगर चूँकि वो हिसाब रखने के आदी नहीं थे लिहाज़ा कुछ ज़्यादा रोशनी डालने से क़ासिर रहे। सबकी बिल इत्तिफ़ाक़ राय थी कि वकालत निहायत उम्दा और आज़ाद पेशा है, क़तई है बशर्ते के घर से बराबर रुपया आता रहे, साल दो साल में डेढ़ दो सौ की आमदनी होने लगना दलील है इस यक़ीनी अमर की कि दस बारह साल में काफ़ी आमदनी होने लगेगी यानी हज़ार बारह सौ।

    मेरा नंबर आया तो मैंने मिस्टर के अता करदा वांतेड के इश्तिहार निकाल कर दिखाए कि भई मैं तो आजकल ये देख रहा हूँ। नाज़रीन ने एक क़हक़हा लगाया और मैं चुपके से मिस्टर की तरफ़ देखा वो कुछ बेचैन थे।

    मिस्टर अलिफ़-ओ-ब-ओ-ज क्या बल्कि बड़ी हद तक जितने भी वहां वकालत पेशा थे उन्होंने ख़ास दिलचस्पी का इज़हार किया और फिर मिस्टर अलिफ़-ओ-ब-ओ-ज ने तो कहा कि, जी जमे रहो। हम भी पहले घबरा गए थे और तुम्हारी तरह कहते थे कि नौकरी कर लेंगे मगर ख़बरदार नौकरी का भूल कर भी नाम लेना।

    वाक़ई बात भी ठीक थी, क्यों? शायद महज़ इस वजह से कि वकालत निहायत मुअज़्ज़िज़ और आज़ाद पेशा है।

    (3)

    उसी ऐट होम में मेरे सीनियर (Senior) भी मिले। कहने लगे कि सुबह आना एक मामूली सी उज़्रदारी है दस बजे की गाड़ी से चले जाना शाम की गाड़ी से चले आना।

    ये ज़िला की एक तहसील की मुंसफ़ी का मुक़द्दमा था। मुक़द्दमा या फ़ीस के बारे में कैफ़ियत पूछ सका, मेरे सीनियर पुराने और कामयाब वकील हैं। लंबे चौड़े वजीह आदमी, क़दआवर, दबंग आवाज़ के वकीलों में नुमायां शख़्सियत रखने वाले।

    चूँकि तहसीलों की मुंसफ़ी में नए वकील को ख़ुसूसन ज़रा ठाठ से जाना चाहिए। मैंने भी रात ही को एक उम्दा सा सूट निकाल कर रखा। सुबह ख़ानम से कहा कि चाय के बजाय पराठे और अंडे खिलवाओ। एक किताब भी ले जाना तय हुआ हालाँकि उसकी कोई ज़रूरत थी।

    मुझे तो अफ़सोस था ही, ख़ानम से कहा तो उसको और भी अफ़सोस हुआ कि जब मैं अपने सीनियर के हाँ से वापस आया और सारा क़िस्सा सुनाते हुए जल्दी जल्दी स्टेशन जाने की तैयारी की। बात अफ़सोस की दरअसल ये थी कि मुवक्किल बीस रुपये दे गया था। सीनियर साहिब तो जजी के एक अपील की वजह से जा सकते थे लिहाज़ा उन्होंने मुझसे कहा कि वकालतनामा मौजूद है इस पर तुम भी दस्तख़त कर देना और दस रुपये तुम ले लेना बाक़ी मुवक्किल को वापस कर देना। मैं भला उनसे कैसे कहता कि जनाब ये आप क्यों नाहक़ वापस करवाते हैं, मेरे और ख़ानम के दिमाग़ तो देखिए मैं सोच रहा था कि जो काम मेरे सीनियर करते आख़िर बिल्कुल वही काम मैं करूँगा, वो ख़ुद करते तो बीस लेते जो मुवक्किल दे ही गया था और मुझसे काम ले रहे हैं तो आया हुआ रुपया वापस कर रहे हैं। ये सब कुछ मगर मुझे वापस करना ही था। रुपये फ़ीस के इलावा किराया वग़ैरा के अलैहदा थे। मुआमले को सीनियर साहिब से ख़ूब समझ कर आया था और फिर आख़िर कुछ मुआमला भी तो हुआ ज़रा ग़ौर तो कीजिए काम ही क्या था। क़िस्सा दरअसल ये था कि दो भाई थे एक ने क़र्ज़ लिया, महाजन क़ुर्क़ी कराने आया तो क़र्ज़दार भाई के पास कुछ बरामद हुआ तो उसने दूसरे भाई के बैल ख़्वाह-मख़ाह क़ुर्क़ करा लिये। अगर देखा जाये तो इस मुआमले में दरअसल किसी वकील की भी ज़रूरत थी। कुजा एक बड़े वकील की क्योंकि को आपरेटिव बंक के रजिस्टर मौजूद थे और फिर पटवारी की फ़र्द जिससे ये साबित था कि दोनों भाईयों की खेती बाड़ी और तमाम कारोबार अलग हैं और एक भाई के क़र्जे़ में दूसरे भाई के बैल किसी तौर भी क़ुर्क़ नहीं हो सकते। इसकी भी पूरी शहादत मौजूद थी कि ये बैल बंक के क़र्जे़ से ख़रीदे गए हैं। इन तमाम बातों के बावजूद भी बजाय वकील बिल्कुल करने के या मेरा सा कोई थर्ड क्लास कर लेने के वो भलामानस सीधा मेरे सीनियर के पास दौड़ा आया।

    मैं आपसे क्या अर्ज़ करूँ कि तमाम नए वकीलों को (ख़ुसूसन मुझे सबसे ज़्यादा) कितनी बड़ी शिकायत है कि अह्ल-ए- मुआमला यानी मुक़द्दमा लड़ने वाले ज़रा ज़रा से कामों के लिए बड़े बड़े वकीलों के पास दौड़ते हैं। हम लोगों को कोई मस्ख़रा भूल कर भी नहीं पूछता वर्ना इससे बेहतर काम आधी से कम फ़ीस पर दौड़ कर करें। मगर साहिब हमारी कोई नहीं सुनता जिसे देखो बड़े वकीलों की तरफ़ दौड़ा चला जा रहा है, हम भी जल कर कहते हैं जाओ हमारी बला से तुम एक छोड़ो दस मर्तबा जाओ दोगुने चौगुने दाम भी दो और झिड़कियां खाओ वो अलैहदा। अब आप ही बताएं कि इसके इलावा और भला हम कर ही क्या सकते हैं।

    साढे़ दस बजे के क़रीब मैं मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुंच गया और फ़ौरन अपने मुवक्किल की तलाश शुरू कर दी।

    ये मुवक्किल दरअसल मेरे सीनियर साहिब का बेहद क़ाइल बल्कि मोतक़िद था और सोचता था कि ख़राब मुक़द्दमा भी वो दुरुस्त कर सकते हैं, चुनांचे इसी बिना पर वो उनके पास दौड़ा आया था, मैंने इस मूज़ी को कभी देखा था, उधर मैं उसकी तलाश में था और इधर वो मेरे सीनियर का मुंतज़िर, उसे क्या मालूम कि उनके बजाय मैं आया हूँ और ख़ुद उसको ढूंढता फिरता हूँ। पेशकार के पास जा कर मैंने वकालतनामा दाख़िल किया। अदालत के कमरे से निकला ही था कि एक गँवार ने मुझे सलाम किया, इस तरह कि जैसे मुझसे कुछ पूछना चाहता है, उसने मुझसे मेरे सीनियर के बारे में पूछा कि क्यों साहिब आप बता सकते हैं कि वो क्यों नहीं आए? मैंने उसके जवाब में उसका नाम लेकर पूछा कि तुम्हारा नाम ये है, उसने कहा हाँ, मैं ख़ुश हुआ कि मुवक्किल मिल गया। मैंने उससे कहा कि तुम्हारे मुक़द्दमे में, मैं आया हूँ उनकी जजी में एक अपील है। ये सुनकर इस कम्बख़्त का गोया दम ही तो सूख गया निहायत ही बददिल हो कर उस नालायक़ ने दो-चार आदमियों के सामने ही कह दिया कि, उन्होंने (यानी मेरे सीनियर ने) मेरा मुक़द्दमा पट कर दिया।

    आप ख़ुद ही ख़्याल कीजिए कि उस गँवार के ऊपर मुझे क्या ग़ुस्सा आया होगा। मैं सख़्त ख़फ़ीफ़ सा हुआ और दिल में ही मैंने कहा कि अगर ऐसे ही दो-चार और मिल गए तो फिर बक़ौल मुंशी जी वकालत तो बस चल चुकी।

    मैंने अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने को हंसी में बात टालना चाही और कहा, क्या फ़ुज़ूल बकता है। मुझे ख़्याल आया कि दस रुपये मिनजुमला बीस के उसी वक़्त वापस कर दूं ताकि ये ख़ुश हो जाये, चुनांचे मैंने दस रुपये का नोट निकाल कर उसको दिया और कहा कि बाक़ी मेरी दस फ़ीस के हुए और ये तुम्हें वापस किए जाते हैं।

    मेरा रुपया वापस करना गोया और भी सक़म हो गया, गोया सारी क़लई खुल गई। उसने नोट तह कर के अपनी जेब में रखते हुए कहा, मुझे दस पाँच रुपय का टूटा फूटा वकील करना होता तो मैं उनके पास क्यों जाता? यहीं किसी को कर लेता।

    अब तो जनाब मैं और भी घबराया, क्या बताऊं किस क़दर उस कमबख़्त ने मुझे ख़फ़ीफ़ किया और कैसा सब के सामने ज़लील किया। मारे ग़ुस्से के मैं काँपने लगा मुझे मालूम होता कि ये मूज़ी मुझे इस बुरी तरह भिगो भिगो कर मारेगा तो मैं सौ रुपये फ़ीस पर भी इस नालायक़ के मुक़द्दमे में आता, हाय मैं क्यों आया बस था कि एक दम से उड़ कर यहां से किसी तरह ग़ायब हो जाऊं, मबादा कि वो इसी क़िस्म के फ़िक़रे चुस्त करे। मैं इस पेशे को दिल ही दिल में बुरा-भला कह रहा था और बाहर इस लतीफ़े पर कचहरी के लोग हंस रहे थे, लाहौल वला क़ुवः, ऐसी भी मेरी कभी काहे को ज़िल्लत हुई होगी और ये सब दुर्गत महज़ दस रुपया की बदौलत लानत है इस पेशे पर, मैंने अपने दिल में कहा।

    जब मैंने देखा कि वो मूज़ी दूर चला गया तो फिर बरामदे में निकला। दूर से एक दरख़्त के नीचे मैंने उसको खड़ा देखा, दो-चार आदमी और थे। इतने में उस ज़ालिम ने मुझे देखा और देखते ही वहीं से मेरी तरफ़ उसने उंगली उठाई।

    आपकी तरफ़ अगर कोई दुश्मन भरी हुई बंदूक़ की नाल दिखाये तो आप क्या करेंगे ? यक़ीनी आड़ में छिप जाऐंगे बस फिर मैंने भी यही किया और फ़ौरन अदालत के कमरे में घुस गया क्योंकि वो नाशुदनी उंगली मेरे लिए किसी तरह भी बंदूक़ की नाल से कम थी फिर थोड़ी देर बाद निकला तो फिर उसने मेरी तरफ़ उंगली उठाई, अब मुझमें ज़ब्त की ताक़त थी और सीधा उसी की तरफ़ गया। मारे ग़ुस्से के मेरा बुरा हाल था पहुंचते ही उसने मेरे तेवर बिगड़े देखे कुछ झिजका कि मैंने डाँट कर कहा चुप रहो बदतमीज़ कहीं का, एक तो हम इतनी दूर से आए आधी फ़ीस ली और इस पर तू बदज़बानी करता है।

    दो एक अराइज़ नवीसों ने भी मेरी हिमायत की और उसको डाँटा और मेरी क़ाबिलीयत वग़ैरा पर कुछ रोशनी डाली और उसको क़ाइल किया तो वो फ़ौरन सीधा हो गया और फिर माज़रत करनेलगा क्योंकि आख़िर मुझ ही से उसको काम लेना था। जब वो राह-ए-रास्त पर गया तो मैंने उससे कुछ ज़बानी भी बातें दरियाफ्त कीं। पटवारी से भी बातचीत की। बंक के मुंशी से भी मिल लिया और सबको ज़रूरी हिदायत भी कर दी। थोड़ी ही देर बाद मुक़द्दमा की पेशी हुई, मैं कभी उस पेशी को भूलूँगा।

    उधर से मैं वकील था और इधर से एक मोटे ताज़े बड़ी बड़ी मूंछों वाले काले बजंग वकील थे जिनकी घाटी इस क़दर साफ़ थी और वो इस तेज़ी से बोलते थे कि गुमान होता था कि कोई चने खा रहा है। उधर तो ये मुआमला और इधरमैं, सूखा साख़ा क़हत का मारा मअ मुबालग़ा मुझ जैसे उनमें से दस बनते। गुल गपाड़ा वैसे तो मैं भी मचा सकता हूँ, हज़रत कहाँ डफ़ली और कहाँ ढोल और फिर इलावा उसके मुझमें और उनमें सबसे बड़ा एक और फ़र्क़ था वो फ़र्क़ जो उमूमन हाईकोर्ट और तहसील के वकील में हो सकता है।

    जब मुक़द्दमा पेश हुआ तो मैंने कुछ बन कर निहायत ही क़ाएदे से अपने मुवक्किल की उज़्रदारी पेश की मगर ख़ुदा वकीलों की बदतमीज़ी से बचाए वकील मुख़ालिफ़ बार-बार ख़िलाफ़-ए-क़ायदा दख़ल दर माक़ूलात करते थे, बेवजह और बे बात मेरे ऊपर ख़िलाफ़-ए-क़ायदा एतराज़ करते थे, कई मर्तबा मैंने अदालत की तवज्जो भी इस तरफ़ दिलाई कि उनका कोई हक़ नहीं और अदालत ने कहा मगर वो भला काहे को सुनते थे, उन्हें अदालत की झड़कियों का डर था और उस का ख़्याल कि ये बात बिल्कुल बेक़ाइदा है कि मेरी तक़रीर के दौरान में दख़ल दें, उन्हें तो बस एक ही ख़्याल था और वो ये कि मुक़द्दमा तो हारना ही है लाओ अपने मुवक्किल ही को ख़ुश कर लूं ताकि वो क़ाइल हो जाये कि मेरे वकील ने कोई कसर उठा रखी। ग़रज़ वो मुर्गे की सी चोंचें लड़ रहे थे, कभी मिसिल सामने से लिए लेते थे तो कभी फाँद फाँद कर मुझे रोक देते थे।

    जिस तरह भी बन पड़ा मैंने अपनी तक़रीर निहायत ही उम्दा पैराए से ख़ुश-उस्लूबी के साथ ख़त्म की और अब उनका नंबर आया, उन्होंने अपनी मूँछें पोंछ कर ज़रा गला साफ़ किया गोया अलफ़ाज़ कहा,

    अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई

    उन्होंने अपनी जवाबी तक़रीर शुरू की, आँखें घुमा कर और पेशानी पर बल डाल कर रेलगाड़ी सी छोड़ दी, जो मुँह में आया ख़्वाह ताल्लुक़ या बे-ताल्लुक़ सब कह डाला और फिर उस तक़रीर के दौरान में उनका गर्दन को झटका देकर एक अजीब अंदाज़ से आगे को बढ़ना और फिर गर्दन हिलाते हुए आँखें मटकाते हुए और हाथ नचाते हुए पीछे हटना और फिर झपट कर मिसिल को लेना और तेज़ी से वर्क़ को उलट-पलट कर के उसके वर्क़ उड़ाना, ये सब एक तमाशा था कि अगर मिस्टर एलस्टन या जस्टिस महमूद या दाश बिहारी घोष होते तब भी इस मुक़द्दमे में मेरे ख़िलाफ़ उनकी बोलने की हिम्मत पड़ती क्योंकि मुक़द्दमा ही उस तरफ़ से कमज़ोर था मगर वो हज़रत भला काहे को रुकते। उनकी इस बे-तुकी और लगो तक़रीर से मेरे ऊपर या अदालत के ऊपर तो कोई असर पड़ सकता था मगर बदक़िस्मती से मेरे मुवक्किल के औसान ख़ता हो गए। वो नाशुदनी सख़्त घबराया और ये समझा कि वकील मुख़ालिफ़ चूँकि बड़े ज़ोर-ओ-शोर से मुक़द्दमा लड़ रहा है लिहाज़ा मेरी काहिली से जीत जाये, चुनांचे उसने मेरे कान में चुपके से अपना अंदेशा ज़ाहिर करते हुए मुझसे कहा कि तुम क्यों नहीं लड़ते। मैंने उसकी इस बे-हूदगी का कुछ जवाब दिया, मुझे क्या मालूम था कि इसका नतीजा मेरे हक़ में बुरा निकलेगा वर्ना वकील मुख़ालिफ़ के चपत ही पड़ता।

    लेकिन मेरे मुवक्किल ने मुझे फिर आगाह किया और जब कई मर्तबा मुझे बार-बार तंग किया तो मैंने उसे झिड़क दिया कि चुप रह।

    अब मेरी मुसीबत आती है थोड़ी ही देर बाद जब वकील मुख़ालिफ़ की धुआँधार तक़रीर फिर ज़ोरों पर आई तो मेरे मुवक्किल ने एक नई तरकीब निकाली, हुज़ूर कह कर, हाथ जोड़ कर मुंसिफ़ साहिब के सामने खड़ा हो गया। मुंसिफ़ साहिब ने वकील मुख़ालिफ़ को रोका और मेरे मुवक्किल से कहा, क्यों? और फिर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा, ये क्या कहता है? मुझसे उन्होंने इस वजह से पूछा कि उमूमन मुवक्किल हर बात पर अपने वकील की मार्फ़त अदालत से कहता है, मैंने लाइलमी ज़ाहिर की और मुवक्किल से पूछा कि जो कहना हो मुझसे कहो। मेरी तरफ़ मुवक्किल ने भन्ना कर देखा और कहा, तुमसे नहीं कहना है मुझे तो हुज़ूर से कहना है। यानी अदालत से। मुंसिफ़ साहिब ने उससे कहा कि, बोल क्या कहता है, यानी अदालत से, मुंसिफ़ साहिब ने उससे कहा कि बोल क्या कहता है। हाथ जोड़े तो वो खड़ा ही था अब गिड़गिड़ा कर कहने लगा,

    हुज़ूर मेरे मुक़द्दमें की पेशी की कोई दूसरी तारीख़ फ़र्मा दी जाये। क़ब्ल इसके कि मुंसिफ़ साहिब कुछ बोलें, उसने तीन चार मर्तबा फ़र्याद की, हुज़ूर मेरी पेशी बढ़ा दी जाये। हुज़ूर मैं मर जाऊँगा। वग़ैरा वग़ैरा अब मैं कुछ खटका और घबराया।

    क़ायदा है कि बग़ैर वजह मुक़द्दमा मुल्तवी नहीं होता लिहाज़ा मुंसिफ़ साहिब ने वजह दर्याफ़्त की इस पर वो नाशुदनी बोला कि, साहिब मैं बे-मौत मर गया अब क्या कहूं और क्या वजह बताऊं बस कुछ पूछिए। मेरे तो करम फूट गए, जब उसने बार-बार दर्याफ़्त करने पर भी कुछ बताया तो मुंसिफ़ साहिब ने डाँट कर कहा कि, बताना हो तो बताओ वर्ना अदालत से बाहर निकलवा दूँगा।

    इस पर वो मूज़ी बोला और निहायत ही बुरे लहजे में कि हुज़ूर मेरी तक़दीर इस वजह से फूट गई इस मुक़द्दमे में बड़े वकील साहिब को बुलाया था। मेरे करम जो फूटे तो उन्होंने भेज दिया इनको। ये कह कर मेरी तरफ़ उंगली उठाई और मेरा चेहरा फ़क़ हो गया, हाथ पैर फूल गए, दिल धड़कने लगा। जाड़ों का मौसम था। मगर पसीना सा गया। ग़रज़ मेरी तरफ़ उंगली उठा कर उसने सिलसिला कलाम इसी क़ाबिल-ए-एतराज़ लहजे में जारी रखा और कहा..., उन्होंने इन्हें भेज दिया और हुज़ूर इनका हाल ये है कि उनका चरकोरिए का सा सीना ना बख़्शें ना बहसें।

    इस पर ज़ोर से क़हक़हा लगा मगर मुंसिफ़ साहिब ने डाँट कर कहा, क्या बकता है नालायक़ कहीं का, मगर हंसी के मारे सब का बुरा हाल था। उधर मेरा ये हाल कि ख़िफ़्फ़त की हंसी हँसने की कोशिश की। इससे काम चला तो जमाही ली मुँह रूमाल से पोछा, घड़ी की तरफ़ देखा, क़लम की निब से कुछ मेज़ कुरेदी और वो मलऊन है कि गिड़गिड़ा कर कहे जा रहा है कि हुज़ूर मेरी पेशी बढ़ा दी जाये। मेरे ऊपर रहम कीजिए, मैं मर जाऊँगा, वग़ैरा वग़ैरा।

    मुंसिफ़ साहिब ने ख़ुद हंसी को रोका और संजीदगी से वकील मुख़ालिफ़ से कहा कि आपको तो कोई एतराज़ नहीं है। उन्होंने कहा मुझे कोई एतराज़ नहीं बशर्ते कि फ़रीक़ मुख़ालिफ़ मेरा हर्जाना दाख़िल कर दे। ये सुनते ही मेरे मुवक्किल ने वही दस रुपये का नोट जो मैंने उसे वापस किया था अदालत की मेज़ पर रख दिया। वकील मुख़ालिफ़ ने फ़ौरन उसको उठा कर अपनी जेब में रखा। अब उसने यानी मेरे मुवक्किल ने इत्मिनान से वकील मुख़ालिफ़ की तरफ़ भी टेढ़ी नज़रों से देखा और कहा, आज टें टें कर लो, अब की मर्तबा जो मेरा वकील आएगा तो तुम्हें भी बंद कर देगा। मुंसिफ़ साहिब ने एक डाँट उसे बताई और कहा इसे निकालो, अदालत से निकालो वो कमबख़्त हाथ जोड़ता सलाम करता मुंसिफ़ साहिब को जजी की दुआएं देता सर पर पैर रखकर भागा। मैं आपसे क्या अर्ज़ करूँ कि मेरा क्या हाल था। हर शख़्स मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था और मैं मरा जा रहा था, बस चलता था कि ज़मीन में समा जाऊं। चलते वक़्त मुस्फ़ साहिब ने भी एक छींटा कसा और मुझसे कहा कि वकील साहिब डंड निकाला कीजिए ताकि सीना कुशादा हो जाये।

    ग़रज़ जिस तरह बन पड़ा सीधा अदालत के कमरे से निकल कर स्टेशन की तरफ़ भागा। वो दिन और आज का दिन फिर कभी उस तहसील में जाने की हिम्मत नहीं हुई। यही क्या कम है कि वकालत कर रहा हूँ। वो शायद इस वजह से कि वकालत निहायत उम्दा और एक आज़ाद पेशा है। क़ुर्बान जाये इस आज़ादी के।

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