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Zehra Nigaah's Photo'

पाकिस्तान की अग्रणी शायरात में विख्यात

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ज़ेहरा निगाह के शेर

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अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है

कोई जाए तो वक़्त गुज़र जाता है

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं

आने वाले बरसों ब'अद भी आते हैं

नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं

तुझे भी भूल गए हम तिरी ख़ुशी के लिए

छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था

पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्ही से सीखा

कहाँ के इश्क़-ओ-मोहब्बत किधर के हिज्र विसाल

अभी तो लोग तरसते हैं ज़िंदगी के लिए

एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की

दोनों फ़र्ज़ निभा कर उस ने सारी उम्र इबादत की

देखते देखते इक घर के रहने वाले

अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं

औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी मजाज़ी

पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता

इस शहर को रास आई हम जैसों की गुम-नामी

हम नाम बताते तो ये शहर भी जल जाता

हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही थी

तुम जो आए तो मंज़िलें लाए

तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत

और हर मौज से लड़ना भी तुम्ही से सीखा

भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ

वो सितमगर जो भूले से भुलाया जाए

दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते

तन्हा नज़र आते हैं ग़म-ए-यार के होते

कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए

कुछ किया जाए चराग़ों को बुझाया जाए

बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो

आज ऐसा लगा यहीं कहीं हो

जिन बातों को सुनना तक बार-ए-ख़ातिर था

आज उन्हीं बातों से दिल बहलाए हुए हूँ

ज़मीं पर गिर रहे थे चाँद तारे जल्दी जल्दी

अंधेरा घर की दीवारों से ऊँचा हो रहा था

जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो

अब महफ़िल याराँ में भी तन्हाई है देखो

ये उदासी ये फैलते साए

हम तुझे याद कर के पछताए

वो जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था

मैं ने जाने क्या सोचा बात रंग-ओ-बू की थी

देखो तो लगता है जैसे देखा था

सोचो तो फिर नाम नहीं याद आते हैं

जो सुन सको तो ये सब दास्ताँ तुम्हारी है

हज़ार बार जताया मगर नहीं माने

मय-ए-हयात में शामिल है तल्ख़ी-ए-दौराँ

जभी तो पी के तरसते हैं बे-ख़ुदी के लिए

अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा

कितने दिन के ब'अद मुझ को आईना अच्छा लगा

दीवानों को अब वुसअत-ए-सहरा नहीं दरकार

वहशत के लिए साया-ए-दीवार बहुत है

सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी

उस का सारे ज़माने से झगड़ा सा था

देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे

देखो उन के मुँह पर ताले अब भी हैं

शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं

सूरज डूब के मेरे घर में निकला था

हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम

ख़ुद ही भटक गए जो कभी रास्ता मिला

रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था

अपना होना और होना मुबहम था

ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है

दिल अपनी ही हालत का तमाशाई है देखो

बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं

देखो ख़ाली दामन वाले अब भी हैं

शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'

फिर दिन का कोई काम भी पूरा नहीं होता

अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर

बातें अब भी तिरी ज़ेहनों में बसी लगती हैं

वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते

कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते

लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज

तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात हो गई

देर तक रौशनी रही कल रात

मैं ने ओढ़ी थी चाँदनी कल रात

मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी

वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा

उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के

बहार आए गुलिस्ताँ में कब ख़ुदा जाने

वो साथ देता तो वो दाद देता तो

ये लिखने-लिखाने का जो भी है ख़लल जाता

एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें

इस सफ़र में हम किस को अपना हम-सफ़र जानें

तारों को गर्दिशें मिलीं ज़र्रों को ताबिशें

रह-नवर्द राह-ए-जुनूँ तुझ को क्या मिला

बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं

लिखने का किसी से क्या कोई वादा किया था

साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं

दूर से देखूँ तो अब वो भी भली लगती हैं

नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा

रफ़्ता रफ़्ता नज़र आना भी तुम्ही से सीखा

रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं

दिल से ख़याल-ए-तंगी-ए-दामाँ गया नहीं

रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं

आईने में अक्स ही तेरा मद्धम था

जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने

किस बात का ग़म है रसन-ओ-दार के होते

गर्दिश-ए-मीना-ओ-जाम देखिए कब तक रहे

हम पे तक़ाज़ा-ए-हराम देखिए कब तक रहे

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