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ज़हीर देहलवी

1825 - 1911 | दिल्ली, भारत

ज़हीर देहलवी

ग़ज़ल 49

अशआर 38

समझेंगे अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक

कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत कहेंगे

शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की

तौबा के साथ तोड़िए बोतल शराब की

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चाहत का जब मज़ा है कि वो भी हों बे-क़रार

दोनों तरफ़ हो आग बराबर लगी हुई

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इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा

आप जिस मुँह को छुपाते हैं दिखाना होगा

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ख़ैर से रहता है रौशन नाम-ए-नेक

हश्र तक जलता है नेकी का चराग़

पुस्तकें 8

 

ऑडियो 15

उन को हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़ सुना कर उट्ठे

जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो

जाते हो तुम जो रूठ के जाते हैं जी से हम

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