वासिफ़ देहलवी के शेर
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
तुम आओगे तो जश्न-ए-चराग़ाँ करेंगे हम
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कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
शोला हमारे दिल का बुझाया न जा सका
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दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
क्या होगा जो उल्टेंगे वो रुख़ से नक़ाब आख़िर
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टैग : नक़ाब
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हल्की सी ख़लिश दिल में निगाहों में उदासी
शायद यूँही होती है मोहब्बत की शुरूआत
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आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
दर्द ऐसा दिल में उट्ठा जान ले कर ही गया
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वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर
वो कहते ही रहे 'वासिफ़' ये महफ़िल है ये महफ़िल है
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टैग : बेख़ुदी
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दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
लेकिन ये दिल का दाग़ मिटाया न जा सका
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ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
किसी ताक़त के आगे फिर कभी वो ख़म नहीं होता
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भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता
किसी का राज़ ऐ नादाँ सर-ए-महफ़िल नहीं कहते
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ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
जो ख़ुद खींच कर न आ जाए उसे मंज़िल नहीं कहते
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जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
जो मौजों से न टकराए उसे साहिल नहीं कहते
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क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
सुब्ह-ए-वतन भी शाम-ए-ग़रीबाँ है आज कल
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क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
दाग़ों से आज घर में चराग़ाँ करेंगे हम
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क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
बहुत मुश्किल है जान ओ दिल को नज़राने में रख देना
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पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
ख़ून-ए-असलाफ़ की अज़्मत को जगा लूँ तो चलूँ
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किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
नहीं मालूम क्यूँ जब से नदामत बढ़ती जाती है
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वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
चराग़ बाद-ए-फ़ना ने बुझाए हैं क्या क्या
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बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से
बपा महफ़िल में इक ताज़ा क़यामत और हो जाती
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ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
उसी महफ़िल में कोई जौहर-ए-क़ाबिल भी आएगा
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नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
परी जैसे कोई हाथों में ले कर जाम आती है
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ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के
मोहब्बत के सहारे कश्ती-ए-दिल है रवाँ अब तक
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नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
मगर तेरे वफ़ादारों की हिम्मत है जवाँ अब तक
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