ताजवर नजीबाबादी
ग़ज़ल 7
अशआर 9
नज़र भर के जो देख सकते हैं तुझ को
मैं उन की नज़र देखना चाहता हूँ
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बर्दाश्त दर्द-ए-इश्क़ की दुश्वार हो गई
अब ज़िंदगी भी जान का आज़ार हो गई
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उफ़ वो नज़र कि सब के लिए दिल-नवाज़ है
मेरी तरफ़ उठी तो तलवार हो गई
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ख़ुदा मुझ को तुझ से ही महरूम कर दे
जो कुछ और तेरे सिवा चाहता हूँ
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दिल के पर्दों में छुपाया है तिरे इश्क़ का राज़
ख़ल्वत-ए-दिल में भी पर्दा नज़र आता है मुझे
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