सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल 36
नज़्म 3
अशआर 28
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
आँख में फैलता गया काजल
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तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
जो ये कहते हैं वफ़ा पैरहन-ए-चाक में है
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इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था
तब से सुंदर सुंदर सपने मन को घेरे फिरते हैं
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या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
या अगर मात हो तो हाथ न मल
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उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा ना-गवार गुज़री है
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तंज़-ओ-मज़ाह 1
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