शारिक़ जमाल
ग़ज़ल 8
अशआर 5
मुझ को अब कैसे पा सकेगा कोई
वक़्त था और गुज़र गया हूँ मैं
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अबद के दोश पे सू-ए-अज़ल चले हैं कि हम
नया ही नक़्श कोई दहर का बनाते हैं
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जाने ये तू है तिरा ग़म है कि दिल की वहशत
जानिब-ए-कोह-ए-निदा कोई बुलाता है मुझे
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कुछ इस तरह से फ़ाश हुआ वो कि आइना
हर अक्स राज़-ए-हुस्न-ओ-अदा तक पहुँच गया
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तिरे बदन में हैं कितनी क़यामतें पिन्हाँ
बड़े शदीद अज़ाबों में क़ैद रहता हूँ
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