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शारिब मौरान्वी

1963 | बाराबंकी, भारत

शारिब मौरान्वी

ग़ज़ल 30

नज़्म 1

 

अशआर 15

पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली

सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए

सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर

ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे

किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द

कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है

सब एक जैसी हैं दुनिया की ‘औरतें लेकिन

तुम्हारे डसने का अंदाज़ मुख़्तलिफ़ ठहरा

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रुख़ पे जाता है जिस रोज़ तमन्ना का बुख़ार

रात हो जाती है चेहरा मुझे धोते धोते

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