सरवत ज़ेहरा
ग़ज़ल 17
नज़्म 27
अशआर 13
कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ
इस आग को तो ख़ून में हल कर दिया गया
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जाने वाले को चले जाना है
फिर भी रस्मन ही पुकारा जाए
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जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ
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मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ
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