सफ़दर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल 69
अशआर 6
घर तो क्या घर का निशाँ भी नहीं बाक़ी 'सफ़दर'
अब वतन में कभी जाएँगे तो मेहमाँ होंगे
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इक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ सही
दिल की आख़िर कोई क़ीमत होगी
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क़िस्मतों से मिला है दर्द हमें
कहीं आराम-ए-दिल न हो जाए
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क़ीमत-ए-जिंस-ए-वफ़ा नीम-निगाही तौबा
ऐसी बातें न करें आप कि सौदा न बने
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जौर-ए-अफ़्लाक की शिरकत की ज़रूरत क्या है
आप काफ़ी हैं ज़माने को सताने के लिए
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