राना आमिर लियाक़त
ग़ज़ल 18
अशआर 26
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मगर ये दरिया मुझे तैरना सिखाता है
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गले लगा के मुझे पूछ मसअला क्या है
मैं डर रहा हूँ तुझे हाल-ए-दिल सुनाने से
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हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
तक़दीर लिए आती है हर रोज़ नया दिन
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उसे पता है कहाँ हाथ थामना है मिरा
उसे पता है कहाँ पेड़ सूख जाता है
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मैं जानता हूँ मोहब्बत में क्या नहीं करना
ये वो जगह है जहाँ क़ैस भी फिसलता है
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