मुईन शादाब के शेर
उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है
जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है
वो वक़्त और थे कि बुज़ुर्गों की क़द्र थी
अब एक बूढ़ा बाप भरे घर पे बार है
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सर्दी और गर्मी के उज़्र नहीं चलते
मौसम देख के साहब इश्क़ नहीं होता
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ज़रा सी देर को तुम अपनी आँखें दे दो मुझे
ये देखना है कि मैं तुम को कैसा लगता हूँ
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किसी के साथ गुज़ारा हुआ वो इक लम्हा
अगर मैं सोचने बैठूँ तो ज़िंदगी कम है
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इस ज़ाविए से पेड़ लगाया है भाई ने
आता नहीं ज़रा सा भी साया मिरी तरफ़
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बहुत से दर्द तो हम बाँट भी नहीं सकते
बहुत से बोझ अकेले उठाने पड़ते हैं
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तेरी निगाह तो इस दौर की ज़कात हुई
जो मुस्तहिक़ है उसी तक नहीं पहुँचती है
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ये तेज़ धूप हमें कैसे साँवला करती
हमारे सर पे दुआओं का शामियाना था
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दिल एक है तो कई बार क्यूँ लगाया जाए
बस एक इश्क़ बहुत है अगर निभाया जाए
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तुम शराफ़त कहाँ बाज़ार में ले आए हो
ये वो सिक्का है जो बरसों से नहीं चलता है
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उम्र भर को मिरा होना भी नहीं चाहता वो
मुझ को आसानी से खोना भी नहीं चाहता वो
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किसी को दिल से भुलाने में देर लगती है
ये कपड़े कमरे के अंदर सुखाने पड़ते हैं
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मुग़ालते में न रहिएगा कम-निगाही के
हमारा चश्मा नज़र का नहीं है धूप का है
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तुझ से मिल कर सब से नाते तोड़ लिए थे
हम ने बादल देख के मटके फोड़ लिए थे
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मौजों से लड़ते वक़्त तो मैं उस के साथ था
साहिल पे उस के हाथ में कुइ और हाथ था
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दिल से उतर जाऊँगा ये मालूम नहीं था
मैं तो उस के दिल में उतर कर देख रहा था
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मैं इस लिए भी ज़रा उस से कम ही मिलता हूँ
बहुत मिलो तो मोहब्बत सी होने लगती है
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ये मरहला भी किसी इम्तिहाँ से कम तो नहीं
वो शख़्स मुझ पे बहुत ए'तिबार करता है
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जुनूँ पे कोई बुरा वक़्त आ पड़ा है क्या
दिवाने अपने गरेबान कैसे सीने लगे
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लम्हा-ब-लम्हा पाँव से लिपटी हैं हिजरतें
कैसे लगाते नाम की तख़्ती मकान पर
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क़त्ल का इतना शोर हुआ है
देख रहा हूँ ख़ुद को छू कर
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शब-ए-हिज्र अब मुझ को खलती नहीं
ये रस्ता मिरे पाँव को लग गया
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मुंदमिल दिल का हर इक ज़ख़्म हुआ जाता है
यही सरमाया था जो ख़त्म हुआ जाता है
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नए तर्ज़ की कॉलोनी में सब कुछ एक सा है
अपना घर भी हाथ बड़ी मुश्किल से आता है
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सहाफ़ीयों को कहाँ हाल-ए-दिल सुना बैठे
ये एक बात कई ज़ावियों से लिक्खेंगे
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