मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल 25
अशआर 34
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की
है वही मंज़ूर जो कुछ आप को मंज़ूर हो
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है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
देता नहीं क्यूँ ज़कात इस की
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ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
आफी निकालिए कोई सूरत निबाह की
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यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
जैसे नज़र ग़रीब की अल्लाह पर रहे
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चलेगा तीर जब अपनी दुआ का
कलेजे दुश्मनों के छान देगा
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