मीम मारूफ़ अशरफ़
ग़ज़ल 6
नज़्म 1
अशआर 39
अभी आग़ाज़-ए-उल्फ़त है चलो इक काम करते हैं
बिछड़ कर देख लेते हैं बिछड़ कर कैसा लगता है
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बिंत-ए-हव्वा को भूल जाएँ हम
ये नहीं आता इब्न-ए-आदम को
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आज तस्वीर उस की देखी है
आज फिर नींद का ज़ियाँ होगा
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किसी के याद करने का अगर होती सबब हिचकी
मिरा महबूब हो कर के परेशाँ मर गया होता
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जब भी चूमा है तिरे होंटों को
जिस्म से उन को जुदा जाना है
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