ख़ालिद शरीफ़
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 10
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
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'ख़ालिद' मैं बात बात पे कहता था जिस को जान
वो शख़्स आख़िरश मुझे बे-जान कर गया
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आसमाँ झाँक रहा है 'ख़ालिद'
चाँद कमरे में मिरे उतरा है
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नाकाम हसरतों के सिवा कुछ नहीं रहा
दुनिया में अब दुखों के सिवा कुछ नहीं रहा
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तुम ख़ुश रहो हमारी दुआ है तमाम-उम्र
अपनी तो ख़ैर जैसी भी गुज़री गुज़र गई
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