जावेद शाहीन के शेर
डूबने वाला था दिन शाम थी होने वाली
यूँ लगा मिरी कोई चीज़ थी खोने वाली
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जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से
सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए
ख़ुद बना लेता हूँ मैं अपनी उदासी का सबब
ढूँड ही लेती है 'शाहीं' मुझ को वीरानी मिरी
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कुछ ज़माने की रविश ने सख़्त मुझ को कर दिया
और कुछ बेदर्द मैं उस को भुलाने से हुआ
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अजनबी बूद-ओ-बाश के क़ुर्ब-ओ-जवार में मिला
बिछड़ा तो वो मुझे किसी और दयार में मिला
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जुदा थी बाम से दीवार दर अकेला था
मकीं थे ख़ुद में मगन और घर अकेला था
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टैग : बाम
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मज़ा तो जब है उदासी की शाम हो 'शाहीं'
और उस के बीच से शाम-ए-तरब निकल आए
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ख़ता किस की है तुम ही वक़्त से बाहर रहे 'शाहीं'
तुम्हें आवाज़ देने एक लम्हा दूर तक आया
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समझ रहा है ज़माना रिया के पीछे हूँ
मैं एक और तरह से ख़ुदा के पीछे हूँ
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थोड़ा सा कहीं जम्अ भी रख दर्द का पानी
मौसम है कोई ख़ुश्क सा बरसात से आगे
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हिसाब-ए-दोस्ताँ करने ही से मालूम ये होगा
ख़सारे में हूँ या अब मैं ख़सारे से निकल आया
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मैं ने देखा है चमन से रुख़्सत-ए-गुल का समाँ
सब से पहले रंग मद्धम एक कोने से हुआ
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कहीं सदा-ए-जरस है न गर्द-ए-राह-ए-सफ़र
ठहर गया है कहाँ क़ाफ़िला तमन्ना का
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किस तरह बे-मौज और ख़ाली रवानी से हुआ
बे-ख़बर दरिया कहाँ पर अपने पानी से हुआ
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ज़ख़्म खाने से या कोई धोका खाने से हुआ
बात क्या थी मैं ख़फ़ा जिस पर ज़माने से हुआ
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