जावेद कमाल रामपुरी
ग़ज़ल 14
नज़्म 4
अशआर 10
फिर कई ज़ख़्म-ए-दिल महक उट्ठे
फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
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अब तो आ जाओ रस्म-ए-दुनिया की
मैं ने दीवार भी गिरा दी है
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हाए वो लोग हम से रूठ गए
जिन को चाहा था ज़िंदगी की तरह
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अगर सुकून से उम्र-ए-अज़ीज़ खोना हो
किसी की चाह में ख़ुद को तबाह कर लीजे
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हाथ फिर बढ़ रहा है सू-ए-जाम
ज़िंदगी की उदासियों को सलाम
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