इरशाद ख़ान सिकंदर
ग़ज़ल 14
अशआर 14
अब अपने-आप को ख़ुद ढूँढता हूँ
तुम्हारी खोज में निकला हुआ मैं
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खींच लाई है मोहब्बत तिरे दर पर मुझ को
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
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ज़माने पर तो खुल कर हँस रहा था
तिरे छूते ही रो बैठा है पागल
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बूढ़ी माँ का शायद लौट आया बचपन
गुड़ियों का अम्बार लगा कर बैठ गई
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रिश्ता बहाल काश फिर उस की गली से हो
जी चाहता है इश्क़ दोबारा उसी से हो
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