फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी के शेर
आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया
वो अपने साथ मेरी कहानी भी ले गया
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ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
न आया हम को बरहना गुज़ारिशें लिखना
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अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया
क़तरा गुहर बना जो समुंदर से कट गया
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ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा
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उस की क़ुर्बत का नशा क्या चीज़ है
हाथ फिर जलते तवे पर रख दिया
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टैग : विसाल
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एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद
देख हो जाए न पानी कहीं सर से ऊँचा
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किस तरह उम्र को जाते देखूँ
वक़्त को आँखों से ओझल कर दे
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टैग : वक़्त
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मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त
ख़ज़फ़ दिखा के गुहर की मिसाल पूछेगा
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टैग : वक़्त
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जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
कहीं ग़ुबार कहीं रौशनी सलामत है
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टैग : फ़साद
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हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
किताब का न कोई दर्स मो'तबर निकला
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टैग : किताब
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वक़्त ने किस आग में इतना जलाया है मुझे
जिस क़दर रौशन था मैं उस से सिवा रौशन हुआ
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टैग : वक़्त
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शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'
जितनी सादा है तबीअत उतना ही तीखा हुनर
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हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते
दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो
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टैग : मुफ़्लिसी
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किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो
मसाइल कम नहीं फिर ज़िंदगी भर सोचते रहना
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यूँ मआनी से बहुत ख़ास है रिश्ता अपना
ज़िंदगी कट गई लफ़्ज़ों को ख़बर करने में
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तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल न थी
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ उतरता गया बहुत गहरा
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ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ
ज़रा इस की वज़ाहत धूप की चादर पे लिख देना
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लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
कौन बदनाम रहा शहर-ए-सुख़न में ऐसा
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पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा
मैं हूँ वो रंग जो तिरे पैकर से कट गया
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ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
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तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ
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अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो
किसी बजती हुई पाज़ेब का घुंघरू लिखना
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कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
पुरानी बात हुई चुस्त बंदिशें लिखना
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तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की
मुझे भी तीर की सूरत कमाँ में रख देना
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वो मेल-जोल हुस्न ओ बसीरत में अब कहाँ
जो सिलसिला था फूल का पत्थर से कट गया
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नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र
ख़ामुशी ये दुख भला झेलेगी क्या
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ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन
हो गए हम राख तो दस्त-ए-दुआ रौशन हुआ
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ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ
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देखना हैं खेलने वालों की चाबुक-दस्तियाँ
ताश का पत्ता सही मेरा हुनर तेरा हुनर
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शब-गज़ीदा को तिरे इस की ख़बर ही कब थी
दिन जो आएगा ग़म-ए-ला-मुतनाही देगा
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लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
यहाँ भी काम न अर्ज़-ए-हुनर से निकलेगा
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