एजाज़ वारसी
ग़ज़ल 11
अशआर 7
मैं उस के ऐब उस को बताता भी किस तरह
वो शख़्स आज तक मुझे तन्हा नहीं मिला
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आप आए हैं हाल पूछा है
हम ने ऐसे भी ख़्वाब देखे हैं
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राह-रौ बच के चल दरख़्तों से
धूप दुश्मन नहीं है साए हैं
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चढ़ते सूरज की मुदारात से पहले 'एजाज़'
सोच लो कितने चराग़ उस ने बुझाए होंगे
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ऐ संग-ए-आस्ताँ मिरे सज्दों की लाज रख
आया हूँ ए'तिराफ़-ए-शिकस्त-ए-ख़ुदी लिए
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