दुष्यंत कुमार
ग़ज़ल 10
अशआर 22
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो
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मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
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सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
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तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
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हिंदी ग़ज़ल 26
चित्र शायरी 7
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए तिरी सहर हो मिरा आफ़्ताब हो जाए हुज़ूर आरिज़-ओ-रुख़्सार क्या तमाम बदन मिरी सुनो तो मुजस्सम गुलाब हो जाए उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना ये तिश्नगी जो तुम्हें दस्तियाब हो जाए वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए ग़लत कहूँ तो मिरी आक़िबत बिगड़ती है जो सच कहूँ तो ख़ुदी बे-नक़ाब हो जाए
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