अतीक़ुल्लाह के शेर
आइना आइना तैरता कोई अक्स
और हर ख़्वाब में दूसरा ख़्वाब है
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
आँसुओं की ज़बान में था कुछ
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ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
और इक चराग़ से कितने चराग़ जलते थे
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वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई
अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था
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रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था
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इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
रात उतनी ही मयस्सर है सफ़र उतना ही है
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लम्स की शिद्दतें महफ़ूज़ कहाँ रहती हैं
जब वो आता है कई फ़ासले कर जाता है
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फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
किसी के वास्ते कोई दुआ न करता था
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हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे
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किस के पैरों के नक़्श हैं मुझ में
मेरे अंदर ये कौन चलता है
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किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे
मैं इतनी ज़ोर से चीख़ा नहीं था
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तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है
हम ने वो ज़माना भी गुज़रते हुए देखा
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हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
आसमानों में रह गया था कुछ
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ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
फिर इस के बाद ही इंकार कर के देखा जाए
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अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई
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मुझ में ख़ुद मेरी अदम-मौजूदगी शामिल रही
वर्ना इस माहौल में जीना बड़ा दुश्वार था
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कोई शब ढूँडती थी मुझ को और मैं
तिरी नींदों में जा कर सो गया था
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कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए
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पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
चढ़ते हुए देखा न उतरते हुए देखा
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वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे
ये बात है तो सबब दूसरा नहीं होगा
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बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल
न समझ सको तो मुझे गँवा के भी देखना
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ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
आइंदा लम्हा अब के भी यूँही गुज़र न जाए
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दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
सुब्ह से पहले कई मर्तबा मर जाता हूँ
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अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
कभी दिखाई दिया था हरा-भरा वो भी
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ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
सामान उसी का था जो बे-सर-ओ-सामाँ था
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तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
कहीं कहीं जो चमक रहे हैं हुरूफ़ मेरी इबारतों में
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सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक
हमारे हक़ में कोई फ़ैसला न करता था
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कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था
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