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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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असलम आज़ाद

1948 - 2022 | पटना, भारत

शायर और लेखक, आज़ादी के बाद उर्दू नॉवेल की स्थिति पर एक किताब लिखी, पटना विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से सम्बद्ध रहे

शायर और लेखक, आज़ादी के बाद उर्दू नॉवेल की स्थिति पर एक किताब लिखी, पटना विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग से सम्बद्ध रहे

असलम आज़ाद के शेर

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रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं

मुझ को तन्हा देख कर उस ने पुकारा क्यूँ नहीं

रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं

मुझ को तन्हा देख कर उस ने पुकारा क्यूँ नहीं

हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा

लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं

हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा

लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं

दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा

अपने कमरे में वो जा कर ख़ूब रोया रात भर

दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा

अपने कमरे में वो जा कर ख़ूब रोया रात भर

धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं

ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर

धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं

ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर

मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया

हाथ ख़ून-आलूद हैं इन को अभी धोया नहीं

मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया

हाथ ख़ून-आलूद हैं इन को अभी धोया नहीं

अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर

जाने मैं किस ख़याल में औरों के घर गया

अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर

जाने मैं किस ख़याल में औरों के घर गया

सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है

कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं

सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है

कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं

हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है

मैं सोचता हूँ मगर कुछ मुझे पता लगे

हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है

मैं सोचता हूँ मगर कुछ मुझे पता लगे

किसी तरह तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका

वो दे रहा था बहुत दूर से सदा मुझ को

किसी तरह तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका

वो दे रहा था बहुत दूर से सदा मुझ को

कोई दीवार सलामत है अब छत मेरी

ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी

कोई दीवार सलामत है अब छत मेरी

ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी

दश्त दर से अलग था जंगलों से जुदा

वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था

दश्त दर से अलग था जंगलों से जुदा

वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था

फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में

फिर ढूँढती है नींद उसी पिछले पहर को

फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में

फिर ढूँढती है नींद उसी पिछले पहर को

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