आसिफ़ुद्दौला
ग़ज़ल 27
अशआर 8
इस अदा से मुझे सलाम किया
एक ही आन में ग़ुलाम किया
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मिलते ही नज़र दिल को मिलाया नहीं जाता
आग़ाज़ को अंजाम बनाया नहीं जाता
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हम इश्क़ के बंदे हैं मज़हब से नहीं वाक़िफ़
गर का'बा हुआ तो क्या बुत-ख़ाना हुआ तो क्या
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ये न आने के बहाने हैं सभी वर्ना मियाँ
इतना तो घर से मिरे कुछ नहीं घर दूर तिरा
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कहता है बहुत कुछ वो मुझे चुपके ही चुपके
ज़ाहिर में ये कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता
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