aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1944 | लखनऊ, भारत
शहर की गलियों और सड़कों पर फिरते हैं मायूसी में
काश कोई 'अनवर' से पूछे ऐसे बे-घर कितने हैं
सच ये है हम ही मोहब्बत का सबक़ पढ़ न सके
वर्ना अन-पढ़ तो न थे हम को पढ़ाने वाले
हुस्न ऐसा कि ज़माने में नहीं जिस की मिसाल
और जमाल ऐसा कि ढूँडा करे हर ख़्वाब-ओ-ख़याल
तुम्हारे दिल में कोई और भी है मेरे सिवा
गुमान तो है ज़रा सा मगर यक़ीन नहीं
है तक़ाज़ा-ए-तहज़ीब 'अनवर'
मत कहो वो कि जो मुँह में आए
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