आलमताब तिश्ना के शेर
विसाल-ए-यार की ख़्वाहिश में अक्सर
चराग़-ए-शाम से पहले जला हूँ
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नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
इस दिल सा कोई हम ने तो काफ़र नहीं देखा
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हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना
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टैग : रक़ीब
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हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
जो सर न झुक सके वो क़लम कर दिए गए
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इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
हर गाम पे गुल खिलते ख़ुशबू का सफ़र होता
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ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
बुझे चराग़ तो दिल को जला लिया कहना
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मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है
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पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
फिर यूँ हुआ कि क़त्ल भी हम कर दिए गए
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हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था
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ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'
कि जैसे हाथ से गिर जाए आईना कहना
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बन के ताबीर भी आया होता
नित-नए ख़्वाब दिखाने वाला
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तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था
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शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
वो शहर में है क्या जो बयाबान में नहीं
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मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
है सवाद-ए-आब-ओ-आतिश दीदा ओ दिल के क़रीब
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मैं तुझ को चाहूँ तो ऐसा कि ख़ुद फ़ना हो जाऊँ
मिरा वजूद तिरा आइना दिखाई दे
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