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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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ऐश देहलवी

1779 - 1874 | दिल्ली, भारत

ग़ालिब की गज़लों के आलोचक

ग़ालिब की गज़लों के आलोचक

ऐश देहलवी के शेर

शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए

थोड़ी सी रह गई है इसे भी गुज़ार दे

कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे

मगर उन का कहा ये आप समझें या ख़ुदा समझे

बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली

हवस-ए-रंग वो ख़्वाहिश-ए-बू करते हैं

मैं बुरा ही सही भला सही

पर तिरी कौन सी जफ़ा सही

सीने में इक खटक सी है और बस

हम नहीं जानते कि क्या है दिल

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