आफ़ताब हुसैन के शेर
वो यूँ मिला था कि जैसे कभी न बिछड़ेगा
वो यूँ गया कि कभी लौट कर नहीं आया
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कुछ और तरह की मुश्किल में डालने के लिए
मैं अपनी ज़िंदगी आसान करने वाला हूँ
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टैग : ज़िंदगी
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लोग किस किस तरह से ज़िंदा हैं
हमें मरने का भी सलीक़ा नहीं
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अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत
अभी हमारी दुआ में असर नहीं आया
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टैग : दुआ
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हाल हमारा पूछने वाले
क्या बतलाएँ सब अच्छा है
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टैग : अहवाल
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बदल रहे हैं ज़माने के रंग क्या क्या देख
नज़र उठा कि ये दुनिया है देखने के लिए
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टैग : दुनिया
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किसी तरह तो घटे दिल की बे-क़रारी भी
चलो वो चश्म नहीं कम से कम शराब तो हो
करता कुछ और है वो दिखाता कुछ और है
दर-अस्ल सिलसिला पस-ए-पर्दा कुछ और है
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ज़रा जो फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारगी मयस्सर हो
तो एक पल में भी क्या क्या है देखने के लिए
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तिरे उफ़ुक़ पे सदा सुब्ह जगमगाती रहे
जहाँ पे मैं हूँ वहाँ शाम होने वाली है
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चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो
किसी के दिल में किसी की कमी ग़नीमत है
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टैग : रिश्ता
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कब तक साथ निभाता आख़िर
वो भी दुनिया में रहता है
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मिलता है आदमी ही मुझे हर मक़ाम पर
और मैं हूँ आदमी की तलब से भरा हुआ
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टैग : आदमी
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वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
ये भी क्या कम है कि कुछ उस की कमी मौजूद है
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टैग : वक़्त
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जो कुछ निगाह में है हक़ीक़त में वो नहीं
जो तेरे सामने है तमाशा कुछ और है
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खिला रहेगा किसी याद के जज़ीरे पर
ये बाग़ मैं जिसे वीरान करने वाला हूँ
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टैग : याद
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वो शोर होता है ख़्वाबों में 'आफ़्ताब' 'हुसैन'
कि ख़ुद को नींद से बेदार करने लगता हूँ
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टैग : बेदार
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एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
एक साअ'त है कि सारी उम्र पर तारी हुई
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हुस्न वालों में कोई ऐसा हो
जो मुझे मुझ से चुरा कर ले जाए
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कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है
ख़ुशबू उड़े तो उड़ता है फूलों का रंग भी
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अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी
रवाँ थीं कश्तियाँ किस शान से इस झील में
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पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
कभी कभी कोई झूटी ख़बर बनाते हुए
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दुनिया से अलैहदगी का रास्ता
दुनिया से निबाह कर के देखा
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कब भटक जाए 'आफ़्ताब' हुसैन
आदमी का कोई भरोसा नहीं
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वो सर से पाँव तक है ग़ज़ब से भरा हुआ
मैं भी हूँ आज जोश-ए-तलब से भरा हुआ
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ये सोच कर भी तो उस से निबाह हो न सका
किसी से हो भी सका है मिरा गुज़ारा कहीं
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हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं
वो तीर हूँ जो ख़ुद अपनी कमाँ की ज़द में है
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दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या
ज़रा रुक जाएँ और देखें नतीजा क्या निकलता है
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अपने ही दम से चराग़ाँ है वगरना 'आफ़्ताब'
इक सितारा भी मिरी वीरान शामों में नहीं
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अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई
अभी से क्या बताएँ हम कि वो कैसा निकलता है
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क्या ख़बर मेरे ही सीने में पड़ी सोती हो
भागता फिरता हूँ जिस रोग-भरी रात से मैं
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फ़िराक़ मौसम की चिलमनों से विसाल लम्हे चमक उठेंगे
उदास शामों में काग़ज़-ए-दिल पे गुज़रे वक़्तों के बाब लिखना
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सो अपने हाथ से दीं भी गया है दुनिया भी
कि इक सिरे को पकड़ते तो दूसरा जाता
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ये दिल की राह चमकती थी आइने की तरह
गुज़र गया वो उसे भी ग़ुबार करते हुए
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तिरे बदन के गुलिस्ताँ की याद आती है
ख़ुद अपनी ज़ात के सहरा को पार करते हुए
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गए मंज़रों से ये क्या उड़ा है निगाह में
कोई अक्स है कि ग़ुबार सा है निगाह में
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दिलों के बाब में क्या दख़्ल 'आफ़्ताब-हुसैन'
सो बात फैल गई मुख़्तसर बनाते हुए
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असास-ए-जिस्म उठाऊँ नए सिरे से मगर
ये सोचता हूँ कि मिट्टी मिरी ख़राब तो हो
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किन मंज़रों में मुझ को महकना था 'आफ़्ताब'
किस रेगज़ार पर हूँ मैं आ कर खिला हुआ
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गए ज़मानों की दर्द कजलाई भूली बिसरी किताब पढ़ कर
जो हो सके तुम से आने वाले दिनों के रंगीन ख़्वाब लिखना
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किसी तरह भी तो वो राह पर नहीं आया
हमारे काम हमारा हुनर नहीं आया
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