आदिल ज़ैदी
नज़्म 3
अशआर 11
मात खाई है अक्सर शाह ने प्यादे से
फ़र्क़ कुछ नहीं पड़ता ताज और लिबादे से
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अपने रस्म-ओ-रिवाज खो बैठे
बाक़ी अब ख़ानदान में क्या है
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हाल पूछते क्या हो क़िस्सा मुख़्तसर ये है
घर न बन सका अब तक जो मकाँ बनाया था
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वार पुश्त पर करके क्या मिला तुम्हें आख़िर
एक पल में खो बैठे ए'तिबार जितना था
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ये सहन-ए-अर्ज़-ए-हरम है ब-एहतियात क़दम
बहुत क़रीब ख़ुदा है ज़रा सँभल के चलो
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