अब्दुल रहमान एहसान देहलवी के शेर
बहुत से ख़ून-ख़राबे मचेंगे ख़ाना-ख़राब
यही है रंग अगर तेरे पान खाने का
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मय-कदे में इश्क़ के कुछ सरसरी जाना नहीं
कासा-ए-सर को यहाँ गर्दिश है पैमाने की तरह
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जाँ-कनी पेशा हो जिस का वो लहक है तेरा
तुझ पे शीरीं है न 'ख़ुसरव' का न फ़रहाद का हक़
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चश्म-ए-मस्त उस की याद आने लगी
फिर ज़बाँ मेरी लड़खड़ाने लगी
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पलकों से गिरे है अश्क टप टप
पट से वो लगा हुआ खड़ा है
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अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
इस तरह से तुम्हें जाएज़ नहीं एजाज़ से रम्ज़
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शब पिए वो शराब निकला है
रात को आफ़्ताब निकला है
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गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वगर्ना याद थीं हम को शिकायतें क्या क्या
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दिल में तुम हो न जलाओ मिरे दिल को देखो
मेरा नुक़सान नहीं अपना ज़ियाँ कीजिएगा
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तो भी उस तक है रसाई मुझे एहसाँ दुश्वार
दाम लूँ गर पर-ए-जिब्रील बरा-ए-पर्वाज़
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अगर बैठा ही नासेह मुँह को सी बैठ
वगर्ना याँ से उठ ऐ बे-हया जा
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एक बोसे से मुराद-ए-दिल-ए-नाशाद तो दो
कुछ न दो हाथ से पर मुँह से मिरी दाद तो दो
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अनार-ए-ख़ुल्द को तू रख कि मैं पसंद नहीं
कुचें वो यार की रश्क-ए-अनार ऐ वाइ'ज़
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क्यूँ न रुक रुक के आए दम मेरा
तुझ को देखा रुका रुका मैं ने
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मिरी बात-चीत उस से 'एहसाँ' कहाँ है
न उस का दहाँ है न मेरी ज़बाँ है
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वो आग लगी पान चबाए से कसू की
अब तक नहीं बुझती है बुझाए से कसू की
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क्यूँकर न मय पियूँ मैं क़ुरआँ को देख ज़ाहिद
वहाँ वशरबू है आया ला-तशरबू न आया
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नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
हुआ है जो कोई मूजिद शराब-ख़ाने का
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कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
ले चलो मुझ को मुसलमानो उसी काफ़िर के पास
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जो पूछा मैं ने दिल ज़ुल्फ़ों में जूड़े में कहाँ बाँधा
कहा जब चोर था अपना जहाँ बाँधा वहाँ बाँधा
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मज़े की बात तो ये है कि बे-मज़ा है वो दिल
तुम्हारी बे-मज़गी का जिसे मज़ा ना लगे
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मोहतसिब भी पी के मय लोटे है मयख़ाने में आज
हाथ ला पीर-ए-मुग़ाँ ये लौटने की जाए है
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ख़ाक आब-ए-गिर्या से आतिश बुझे नाचार हम
जानिब-ए-कू-ए-बुताँ जूँ बाद-ए-सरसर जाएँगे
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न मेरी बात को पूछे है न देखे है इधर
एक दिन ये न किया आशिक़-ए-बीमार कि तू
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गरेबाँ चाक है हाथों में ज़ालिम तेरा दामाँ है
कि इस दामन तलक ही मंज़िल-ए-चाक-ए-गरेबाँ है
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उस लब-ए-बाम से ऐ सरसर-ए-फुर्क़त तू बता
मिस्ल तिनके के मिरा ये तन-ए-लाग़र फेंका
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तनख़्वाह एक बोसा है तिस पर ये हुज्जतें
है ना-दहिंद आप की सरकार बे-तरह
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तिरी आन पे ग़श हूँ हर आन ज़ालिम
तू इक आन लेकिन न याँ आन निकला
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फ़िलफ़िल-ए-ख़ाल-ए-मलाहत के तसव्वुर में तिरे
चरचराहट है कबाब-ए-दिल-ए-बिरयान में क्या
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ब-वक़्त-ए-बोसा-ए-लब काश ये दिल कामराँ होता
ज़बाँ उस बद-ज़बाँ की मुँह में और मैं ज़बाँ होता
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आह-ए-पेचाँ अपनी ऐसी है कि जिस के पेच को
पेचवाँ नीचा भी तेरा देख कर ख़म खाए है
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चैन इस दिल को न इक आन तिरे बिन आया
दिन गया रात हुई रात हुई दिन आया
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किस को उस का ग़म हो जिस दम ग़म से वो ज़ारी करे
हाँ मगर तेरा ही ग़म आशिक़ की ग़म-ख़्वारी करे
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दिल-रुबा तुझ सा जो दिल लेने में अय्यारी करे
फिर कोई दिल्ली में क्या दिल की ख़बरदारी करे
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यारा है कहाँ इतना कि उस यार को यारो
मैं ये कहूँ ऐ यार है तू यार हमारा
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न पाया गाह क़ाबू आह मैं ने हाथ जब डाला
निकाला बैर मुझ से जब तिरे पिस्ताँ का मुँह काला
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याद तो हक़ की तुझे याद है पर याद रहे
यार दुश्वार है वो याद जो है याद का हक़
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ग़ुंचा को मैं ने चूमा लाया दहन को आगे
बोसा न मुझ को देवे वो नुक्ता-याब क्यूँकर
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क्यूँ तू रोता है दिला आने दे रोज़-ए-वस्ल को
इस क़दर छेड़ूँगा उन को वो भी रो कर जाएँगे
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कौन सानी शहर में इस मेरे मह-पारे का है
चाँद सी सूरत दुपट्टा सर पे यक-तारे का है
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डर अपने पीर से बी पीर पीर पीर न कर
कि तेरे पीर के वा'दे ने मुझ को पीर किया
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इतवार को आना तिरा मालूम कि इक उम्र
बे-पीर तिरे हम ने ही अतवार को देखा
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आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
गर मैं ने कभी नर्गिस-ए-बीमार को देखा
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गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
दीं है मतलूब तो इस तालिब-ए-दीदार से मिल
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नमाज़ अपनी अगरचे कभी क़ज़ा न हुई
अदा किसी की जो देखी तो फिर अदा न हुई
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उल्फ़त में तेरा रोना 'एहसाँ' बहुत बजा है
हर वक़्त मेंह का होना ये रहमत-ए-ख़ुदा है
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आग इस दिल-लगी को लग जाए
दिल-लगी आग फिर लगाने लगी
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