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अब्दुल हमीद

1953 | इलाहाबाद, भारत

अब्दुल हमीद

ग़ज़ल 12

अशआर 12

फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं

हवा कहती है मुझ से ये तमाशा कैसा लगता है

ये क़ैद है तो रिहाई भी अब ज़रूरी है

किसी भी सम्त कोई रास्ता मिले तो सही

उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे

सब कुछ उल्टा सीधा कर के बैठ गए हैं

दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं

एक लम्हा जो किसी तरह गुज़रता ही नहीं

लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें

पर हम ने कि अपने को इंसान बहुत रक्खा

पुस्तकें 6

 

ऑडियो 12

अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं

अजीब शय है कि सूरत बदलती जाती है

उसे देख कर अपना महबूब प्यारा बहुत याद आया

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