आशुफ़्ता चंगेज़ी के शेर
हमें भी आज ही करना था इंतिज़ार उस का
उसे भी आज ही सब वादे भूल जाने थे
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टैग : इंतिज़ार
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किस की तलाश है हमें किस के असर में हैं
जब से चले हैं घर से मुसलसल सफ़र में हैं
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टैग : सफ़र
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सवाल करती कई आँखें मुंतज़िर हैं यहाँ
जवाब आज भी हम सोच कर नहीं आए
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टैग : कशमकश
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तुझ से बिछड़ना कोई नया हादसा नहीं
ऐसे हज़ारों क़िस्से हमारी ख़बर में हैं
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टैग : जुदाई
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बुरा मत मान इतना हौसला अच्छा नहीं लगता
ये उठते बैठते ज़िक्र-ए-वफ़ा अच्छा नहीं लगता
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टैग : वफ़ा
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तुझ को भी क्यूँ याद रखा
सोच के अब पछताते हैं
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टैग : याद
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ये बात याद रखेंगे तलाशने वाले
जो उस सफ़र पे गए लौट कर नहीं आए
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टैग : सफ़र
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ऊँची उड़ान के लिए पर तौलते थे हम
ऊँचाइयों पे साँस घुटेगी पता न था
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ख़्वाब जितने देखने हैं आज सारे देख लें
क्या भरोसा कल कहाँ पागल हवा ले जाएगी
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टैग : ख़्वाब
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सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार
ये लग रहा है कि तुझ को भी भूल जाएँगे
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तू कभी इस शहर से हो कर गुज़र
रास्तों के जाल में उलझा हूँ मैं
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टैग : रास्ता
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सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
बिछड़ के तुझ से अजब रोग लग गया है मुझे
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तेरी ख़बर मिल जाती थी
शहर में जब अख़बार न थे
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पहले ही क्या कम तमाशे थे यहाँ
फिर नए मंज़र उठा लाया हूँ मैं
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कहा था तुम से कि ये रास्ता भी ठीक नहीं
कभी तो क़ाफ़िले वालों की बात रख लेते
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सोने से जागने का तअल्लुक़ न था कोई
सड़कों पे अपने ख़्वाब लिए भागते रहे
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टैग : ख़्वाब
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बदन भीगेंगे बरसातें रहेंगी
अभी कुछ दिन ये सौग़ातें रहेंगी
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जो हर क़दम पे मिरे साथ साथ रहता था
ज़रूर कोई न कोई तो वास्ता होगा
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सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ
तिरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे
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हमें ख़बर थी ज़बाँ खोलते ही क्या होगा
कहाँ कहाँ मगर आँखों पे हाथ रख लेते
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दरियाओं की नज़्र हुए
धीरे धीरे सब तैराक
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टैग : दरिया
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अजीब ख़्वाब था ताबीर क्या हुई उस की
कि एक दरिया हवाओं के रुख़ पे बहता था
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टैग : ख़्वाब
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आँख खुलते ही बस्तियाँ ताराज
कोई लज़्ज़त नहीं है ख़्वाबों में
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टैग : ख़्वाब
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'आशुफ़्ता' अब उस शख़्स से क्या ख़ाक निबाहें
जो बात समझता ही नहीं दिल की ज़बाँ की
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क्यूँ खिलौने टूटने पर आब-दीदा हो गए
अब तुम्हें हम क्या बताएँ क्या परेशानी हुई
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टैग : आब दीदा
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तलाश जिन को हमेशा बुज़ुर्ग करते रहे
न जाने कौन सी दुनिया में वो ख़ज़ाने थे
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है इंतिज़ार मुझे जंग ख़त्म होने का
लहू की क़ैद से बाहर कोई बुलाता है
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ये और बात कि तुम भी यहाँ के शहरी हो
जो मैं ने तुम को सुनाया था मेरा क़िस्सा है
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तेज़ी से बीतते हुए लम्हों के साथ साथ
जीने का इक अज़ाब लिए भागते रहे
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घर में और बहुत कुछ था
सिर्फ़ दर-ओ-दीवार न थे
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तुझे भुलाने की कोशिश में फिर रहे थे कि हम
कुछ और साथ में परछाइयाँ लगा लाए
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एक मंज़र में लिपटे बदन के सिवा
सर्द रातों में कुछ और दिखता नहीं
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घर की हद में सहरा है
आगे दरिया बहता है
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अर्से से इस दयार की कोई ख़बर नहीं
मोहलत मिले तो आज का अख़बार देख लें
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दिल देता है हिर-फिर के उसी दर पे सदाएँ
दीवार बना है अभी दीवाना नहीं है
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