ए जी जोश
ग़ज़ल 17
अशआर 7
गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन
ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन
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मेरी बर्बादी में हिस्सा है अपनों का
मुमकिन है ये बात ग़लत हो पर लगता है
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ठुकरा के चले जाना है बर-हक़ तुम्हें लेकिन
बस रखना ख़याल इतना जहाँ को न ख़बर हो
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इश्क़ कच्चे घड़े पे डूब गया
लम्हा जब इंतिज़ार का आया
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जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ
हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन
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