Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है

उबैदुल्लाह अलीम

शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है

उबैदुल्लाह अलीम

शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है

ये शहर दिल से ज़ियादा दुखा सा लगता है

हर इक के साथ कोई वाक़िआ सा लगता है

जिसे भी देखो वो खोया हुआ सा लगता है

ज़मीन है सो वो अपनी गर्दिशों में कहीं

जो चाँद है सो वो टूटा हुआ सा लगता है

मेरे वतन पे उतरते हुए अँधेरों को

जो तुम कहो मुझे क़हर-ए-ख़ुदा सा लगता है

जो शाम आई तो फिर शाम का लगा दरबार

जो दिन हुआ तो वो दिन कर्बला सा लगता है

ये रात खा गई इक एक कर के सारे चराग़

जो रह गया है वो बुझता हुआ सा लगता है

दुआ करो कि मैं उस के लिए दुआ हो जाऊँ

वो एक शख़्स जो दिल को दुआ सा लगता है

तो दिल में बुझने सी लगती है काएनात तमाम

कभी कभी जो मुझे तू बुझा सा लगता है

जो रही है सदा ग़ौर से सुनो उस को

कि इस सदा में ख़ुदा बोलता सा लगता है

अभी ख़रीद लें दुनिया कहाँ की महँगी है

मगर ज़मीर का सौदा बुरा सा लगता है

ये मौत है या कोई आख़िरी विसाल के बा'द

अजब सुकून में सोया हुआ सा लगता है

हवा-ए-रंग-ए-दो-आलम में जागती हुई लय

'अलीम' ही कहीं नग़्मा-सरा सा लगता है

RECITATIONS

उबैदुल्लाह अलीम

उबैदुल्लाह अलीम,

00:00/00:00
उबैदुल्लाह अलीम

शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है उबैदुल्लाह अलीम

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY

You have remaining out of free content pages per year. Log In or Register to become a Rekhta Family member to access the full website.

बोलिए