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ग़ुलाम अब्बास की कहानियाँ
आनंदी
‘समाज में जिस चीज़ की माँग होती है वही बिकती है।’ बल्दिया के पाकबाज़ लोग शहर को बुराइयों और बदनामियों से बचाने के लिए वहाँ के ज़नाना बाज़ार को शहर से हटाने की मुहिम चलाते हैं। वह इस मुहिम में कामयाब भी होते हैं और उस बाज़ार को शहर से छ: मील दूर एक खंडहर में आबाद करने का फैसला करते है। अब बाज़ारी औरतों के वहाँ घर बनवाने और आबाद होने तक उस खंडहर में ऐसी चहल-पहल रहती है कि वह अच्छा-ख़ासा गाँव बन जाता है। कुछ साल बाद वह गाँव क़स्बा और क़स्बे से शहर में तब्दील हो जाता है। यही शहर आगे जाकर आनंदी के नाम से जाना जाता है।
ओवर कोट
एक खू़बसूसरत नौजवान सर्दियों की एक सर्द माल रोड़ की सड़कों पर टहल रहा है। जितना वह खु़द खू़बसूरत है उतना है उसका ओवर कोट भी है। ओवर कोट की जेब में हाथ डाले वह सड़कों पर टहल रहा है और एक के बाद दूसरी दुकानों पर जाता रहता है। अचानक एक लारी उसे टक्कर मारकर चली जाती है। कुछ लोग उसे अस्पताल ले जाते हैं। अस्पताल में दो नर्स इलाज के दौरान जब उसके कपड़े उतारती हैं तो ओवर कोट के अंदर का उस नौजवान का हाल देखकर इस क़द्र अवाक रह जाती है कि उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता।
कतबा
शरीफ़ हुसैन एक तीसरे दर्ज का क्लर्क है। उन दिनों उसकी बीवी मायके गई हुई होती है जब वह एक दिन शहर के बाज़ार जा पहुंचता है और वहाँ न चाहते हुए भी एक संग-मरमर का टुकड़ा ख़रीद लेता है। टुकड़ा बहुत खू़बसूरत है। एक रोज़ वह संग-तराश के पास जाकर उस पर अपना नाम खुदवा लेता है और सोचता है कि जब उसकी तरक़्क़ी हो जाएगी तो वह अपना घर ख़रीद लेगा और इस नेम प्लेट को उसके बाहर लगाएगा। सारी ज़िंदगी गुज़र जाती है लेकिन उसकी यह ख़्वाहिश कभी पूरी नहीं होती। आख़िर में यही कत्बा उसका बेटा उसकी क़ब्र पर लगवा देता है।
ये परी चेहरा लोग
हर इंसान अपने स्वभाव और चरित्र से जाना जाता है। सख़्त मिज़ाज बेगम बिल्क़ीस तुराब अली एक दिन माली से बाग़ीचे की सफ़ाई करवा रही थी कि वह मेहतरानी और उसकी बेटी की बातचीत सुन लेती है। बातचीत में माँ-बेटी बेगमों के असल नाम न लेकर उन्हें तरह-तरह के नामों से बुलाती हैं। यह सुनकर बिल्क़ीस बानो उन दोनों को अपने पास बुलाती हैं। वह उन सब नामों के असली नाम पूछती है और जानना चाहती हैं कि उन्होंने उसका नाम क्या रखा है? मेहतरानी उसके सामने तो मना कर देती है लेकिन उसने बेगम बिल्कीस का जो नाम रखा होता है वह अपने शौहर के सामने ले देती है।
बहरूपिया
हर पल रूप बदलते रहने वाले एक बहरूपिये की कहानी, जिसमें उसका अपना असली रूप कहीं खोकर रह गया है। वह हफ़्ते में एक-दो बार मोहल्ले में आया करता था। देखने में काफ़ी आकर्षक था और हर किसी से मज़ाक़ किया करता था। एक दिन एक छोटे लड़के ने उसे देखा तो वह उससे ख़ासा प्रभावित हुआ और फिर अपने दोस्त को साथ लेकर वे उसका पीछा करता हुआ, उसके असली रूप की तलाश में निकल पड़ा।
जुवारी
यह एक शिक्षाप्रद और हास्य शैली में लिखी गई कहानी है। जुवारियों का एक समूह बैठा हुआ ताश खेल रहा था कि उसी वक़्त पुलिस वहाँ छापा मार देती है। पुलिस के पकड़े जाने पर हर जुवारी अपनी इज्ज़त और काम को लेकर परेशान होता है। जुवारियों का मुखिया नक्को उन्हें दिलासा देता है कि थानेदार उसका जानने वाला है और जल्द ही वे छूट जाएँगे। लेकिन छोड़ने से पहले थानेदार उन्हें जो सज़ा देता है वह काफ़ी दिलचस्प है।
फैन्सी हेयर कटिंग सैलून
बंटवारे के बाद रोज़ी-रोटी की तलाश में भटक रहे चार हज्जाम मिलकर एक दुकान खोलते हैं। दुकान अच्छी चल निकलती है। तभी हालात का मारा किसी सेठ का एक मुंशी उनके पास आता है और उनसे काम की दरख़्वास्त करता है। वह उसे भी रख लेते हैं। मुंशी शुरू में उनका खाना बनाता है और दुकान की साफ़-सफ़ाई करता है। फिर धीरे-धीरे वह अपने मुंशीपन पर आ जाता है और न केवल उन चारों पर बल्कि दुकान पर भी कब्ज़ा कर लेता है।
उसकी बीवी
एक नौजवान वेश्या नसरीन की बाँहों में पड़ हुआ है और उससे अपनी मरहूम बीवी की बातें कर रहा है। नसरीन की हर अदा और बनाव-सिंगार में उसे अपनी बीवी नज़र आती है। वह अपनी बीवी की हर एक बात नसरीन को बताता जाता है। उसकी बातें सुनकर नसरीन शुरू में दिलचस्पी जाहिर करती है। फिर ऊब जाती है और आख़िर में तरस खा कर उसे किसी माँ की तरह अपनी बाँहों में भर लेती है।
हम्माम में
यह तन्हा ज़िंदगी गुजारती फ़र्रुख़ भाबी की कहानी है, जिनके यहाँ हर रोज़ उनके दोस्तों की महफ़िल जमती है। वह उस महफ़िल का सितारा हैं और उनके दोस्त उनकी बहुत इज्ज़त करते हैं। उस महफ़िल में एक रोज़ एक अजनबी शख़्स भी शामिल होता है। इसके बाद वह दो-तीन बार और आता है और फिर आना बंद कर देता है। उसके न आने से बाक़ी दोस्त खुश होते हैं, मगर तभी उन्हें एहसास होता है कि अब फ़र्रुख़ भाबी घर से ग़ायब रहने लगी हैं।
गूँदनी
दोहरी ज़िंदगी जीते एक ऐसे शख़्स की कहानी जो चाहकर भी खुलकर अपने एहसासात का इज़हार नहीं कर पाता। मिर्ज़ा बिर्जीस का ख़ानदान किसी ज़माने में बहुत दौलतमंद था लेकिन इस वक़्त इस ख़ानदान की हालत दिगरगूँ है। इसके बावजूद मिर्ज़ा उसी शान-ओ-शौकत और ठाट-बाट के साथ रहने का ढोंग करता है। एक रोज़ बाज़ार में कुछ ख़रीदारी करते हुए भिखारी ने उससे खाना माँगा तो उसने उसे झिड़क दिया। मगर शाम को सिनेमा में एक फ़िल्म देखते हुए जब उसने एक बुढ़िया को भीख माँगते देखा तो वह रो दिया।
कन-रस
भावनात्मक शोषण के द्वारा बहुत अय्यारी से एक शरीफ़ ख़ानदान को तवाएफ़ों की राह पर ले जाने की कहानी है। फ़य्याज़ को स्वाभाविक रूप से संगीत से लगाव था लेकिन घरेलू हालात और रोज़गार की परेशानी ने उसके इस शौक़ को दबा दिया था। अचानक एक दिन संगीत का माहिर एक फ़क़ीर उसे रास्ते में मिलता है। उसकी कला से प्रभावित हो कर फ़य्याज़ उसे घर ले आता है। फ़य्याज़ उससे संगीत की तालीम लेने लगता है। हैदरी ख़ान घर में इस क़दर घुल मिल जाता है कि जल्द ही वो उस्ताद से बाप बन जाता है। फ़य्याज़ की जवान होती बेटियों को भी संगीत की शिक्षा दी जाने लगती है। मोहल्ले वालों की शिकायत से मजबूर हो कर मालिक मकान फ़य्याज़ से मकान ख़ाली करवा लेता है तो हैदरी ख़ान फ़य्याज़ के परिवार को तवाएफ़ों के इलाक़े में मकान दिलवा देता है। सामान शिफ़्ट होने तक फ़य्याज़ और उसकी बीवी को इसकी भनक तक नहीं लगने पाती और रात में जब वो बालकनी में खड़े हो कर आस-पास के मकानात की रौनक़ देखते हैं तो दोनों हैरान रह जाते हैं।
साया
आधुनिक समाज में मानवीय मूल्यों को ज़िंदा रखने वाले एक मज़दूर पेशा इंसान की कहानी। सुबहान नामी व्यक्ति शहर के मशहूर वकील साहब के घर के बाहर ठेला लगाता है जो अपेक्षाकृत एक निर्जन इलाक़े में है। सुबहान की आमदनी का सारा दार-ओ-मदार वकील साहब के परिवार पर ही
समझौता
बीवी के भाग जाने के ग़म में मुब्तला एक शख्स की कहानी है। वह उसे भूलाना चाहता है और इस चक्कर में कोठों पर पहुंच जाता है। फिर एक दिन उसकी बीवी वापस लौट आती है। न चाहते हुए भी वह उसे घर में पनाह दे देता है, लेकिन वह उससे कोई ताल्लुक नहीं रखता है। एक रोज़ फिर वह कोठे पर जाने की सोचता है तो पता चलता है कि उसके अकाउंट में रूपया ही नहीं बचा है। उसे अपनी बीवी का ख़्याल आता है और घर की ओर लौट पड़ता है।
सुर्ख़ गुलाब
दिमागी तौर पर माजू़र एक यतीम लड़की की कहानी, जो गाँव के लोगों की सेवा करके किसी तरह अपना पेट पालती है। गाँव के पास ही चन शाह की मज़ार थी और वहाँ हर साल मेला लगता था। उस साल वह भी चन शाह की मज़ार पर लगे मेले में गई थी और उसे हमल ठहर गया। जब गाँव वालों को उसके हमल के बारे में पता चला तो उन्होंने से उसे गाँव से बाहर निकाल दिया। अगले साल वह अपने नवजात बच्चे के साथ फिर से चन शाह की मज़ार पर नमूदार हो गई।
हमसाए
एक पहाड़ी पर दो मकान खड़े हैं। हालांकि वह एक ही मकान है लेकिन बीच में दीवार देकर उन्हें दो बना दिया गया है। मकानों में तीन बच्चें रहते हैं। एक में दो भाई अकबर और उसका छोटा भाई और दूसरे में बैरी। अकबर का बैरी के प्रति लगाव, पहाड़ी की आब-ओ-हवा और उन तीनों की दिलचस्प गुफ़्तुगू को ही कहानी में बयान किया गया है।
सियाह-ओ-सफे़ेद
28 बरस की मैमूना बेगम एक स्कूल में उस्तानी है। अपनी तनख़्वाह में से धीरे-धीरे करके सौ रुपये जोड़ लेती है। उस रुपये से वह अपने लिए कोई गहना बनवाना चाहती है लेकिन तभी उसकी बहन का ख़त आता है और वह उसे दिल्ली घूमने के लिए बुलाती है। मैमूना हवा-बदली और सैर-तफ़रीह की ग़रज़ से दिल्ली चली जाती है। वहाँ कनॉट प्लेस पर घूमते हुए उसे एक नौजवान दिखता है। पहले दिन वह उसे देखकर खुश होती है लेकिन दूसरे दिन उसकी असलियत जानकर घबरा जाती है। दिल्ली से वापस जाते हुए अपने सौ रुपये का यूँ बर्बाद हो जाना उसे बहुत खलता है।
मुजस्समा
एक बादशाह की अपनी मलिका से बे-इंतिहा मुहब्बत की कहानी है। बादशाह की इच्छा ये थी कि मलिका उससे आसक्ति से अपनी मुहब्बत का इज़हार करे लेकिन मलिका शाही आदाब की पाबंदी करती थी। जिसकी वजह से बादशाह उदास रहने लगा और उसने अपने दुख से मुक्ति पाने के लिए एक सुंदर मूर्ति में पनाह ली। मूर्ति की तरफ़ हद से बढ़ी हुई तवज्जो ने मलिका को जागरूक किया और उसने मूर्ति के अंगों को धीरे धीरे एक एक करके काट डाला लेकिन बादशाह की तल्लीनता में कोई फ़र्क़ न आया। एक दिन मलिका ने मूर्ति के टुकड़े टुकड़े कर दिए और बादशाह के क़दमों में गिर पड़ी।
अंधेरे में
"बीमार बाप को शराब पीते देखकर उसका इकलौता बेटा गुस्सा हो जाता है और इस बात पर देर तक दोनों में बहस होती है कि शराब जब उसके लिए हानिकारक है तो वो आख़िर शराब पीता ही क्यों है। अगर वह शराब पीना नहीं छोड़ेगा तो वह इस घर को छोड़कर चला जाएगा। बाप बेटे की मिन्नत समाजत करके उसे मनाता है और ये तय पाता है कि बची हुई शराब बेटा कहीं बेच आए। धर्मपरायण बेटा रात के सन्नाटे में उसे बेचने की कोशिश में नाकाम हो कर एक बेंच पर आकर बैठ जाता है। वहाँ एक मर्द और एक औरत व्हिस्की की मस्ती में सरशार नज़र आते हैं। उनके संवाद से जवानी की जानकारी होती है और उस नौजवान को नई दुनिया में ले जाती है। वो शराब के सिलसिले में काफ़ी देर तक सोच-विचार करता रहता है और अंततः शराब पी कर घर वापस लौट आता है।"
भंवर
हाजी साहब एक पाकबाज़ और दीनदार शख्स हैं। वह शहर की गंदगी दूर करने के लिए बाज़ारी औरतों के बीच तक़रीर करते हैं और उन्हें गुनाहों के दलदल से निकालने की कोशिश करते हैं। उन्हीं औरतों में दो बहनें गुल और बहार हैं। गुल हाजी साहब की बातों से प्रभावित होकर उनके पास रहने चली आती है। वह उसकी शादी करा देते हैं। गुल की पहली दो शादियाँ नाकाम रहती हैं। उसका तीसरा शौहर बीमार पड़ जाता है। हाजी साहब उसकी फ़िक्र में दुखी है कि आख़िर में गुल की बहन बहार भी उनके पास चली आती है।
बोहरान
"निराश्रय की पीड़ा और मानव स्वभाव की कमीनगी को इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है। गर्वनमेंट की ओर से मकानों के निर्माण के लिए ज़मीनें अलाट की जाती हैं। उन ज़मीनों के ख़रीदारों की सूची में जहाँ एक तरफ़ प्रोफ़ेसर सुहैल हैं वहीं दूसरी ओर एक दफ़्तर का चपरासी चाँद ख़ाँ है। मिस्त्री और ठेकेदार दोनों के साथ समान व्यवहार करते हैं। भ्रष्टाचार के एक लम्बे क्रम के बाद प्रोफ़ेसर सुहेल का मकान जब बन कर तैयार होता है तो इतना बे-ढंगा होता है कि वो ख़ुद को किसी तरह भी उसमें रहने के लिए तैयार नहीं कर पाते हैं और एक जर्मन सैलानी को किराये पर दे देते हैं। किराया इतना ज़्यादा होता है कि वो उससे एक नया घर बना सकते हैं। प्रोफ़ेसर सुहैल दोष रहित मकान बनाने का निश्चय करके अख़बार उठा लेते हैं और ख़ाली ज़मीनों के इश्तिहार पढ़ने लगते हैं।"
बॉम्बे वाला
यह एक ऐसे कॉलोनी की कहानी है, जिसमें ऊपरी श्रेणी के क्लर्क आबाद थे। उन्हें पूरी तरह अमीर तो नहीं कहा जा सकता था, मगर बाहर से देखने पर वे बहुत खुशहाल और अमीर ही दिखते थे। अमीरों जैसे ही उनके शौक भी थे। उसी कॉलोनी में एक शख़्स हफ़्ते में एक बार बच्चों के लिए टॉफ़ी बेचने आया करता था, उसका नाम बॉम्बे वाला था। एक रोज़ कॉलोनी की दो लड़कियाँ अपनी संगीत टीचर के साथ भाग गईं। लोग ग़ुस्से से भरे बैठे थे कि उनके सामने बॉम्बे वाला आ निकला। और फिर...
ज्वार भाटा
वंशावली के द्वारा एक कबाबी के ख़ानदान के शिखर व पतन की कहानी बयान की गई है। शिक्षा व धन के साथ उस परिवार के लोगों ने बड़े से बड़ा पद हासिल किया लेकिन वक़्त के साथ वो अपने सम्बंध भी बदलते रहे। फिर एक पीढ़ी ऐसी भी आई जिसने अपने पूर्वजों की दौलत पर आश्रय लेकर शिक्षा से मुँह फेर लिया और फिर वो दिन भी आया कि उसी परिवार का एक व्यक्ति एक छोटे से होटल की मामूली सी आमदनी पर गुज़र बसर करने पर मजबूर हुआ।
नाक काटने वाले
पुरुष सत्ता समाज में तवाएफ़ को किन किन मोर्चों पर लड़ना पड़ता है उसकी एक झलक इस कहानी में पेश की गई है। नन्ही जान की ग़ैर-मौजूदगी में तीन पठान उसके कोठे पर आते हैं और उसके दो मुलाज़ेमीन से चाक़ू के दम पर ज़ोर-ज़बरदस्ती और अभद्रता का प्रदर्शन करते हैं। वो नन्ही जान की नाक काटने का आशय प्रकट करते हैं। बहुत देर इंतेज़ार के बाद वो थक-हार कर वापस चले जाते हैं। उनके जाने के बाद ही नन्ही जान लौटती है। नन्ही जान अपने मुलाज़ेमीन को तसल्ली देकर सोने चली जाती है और उसके मुलाज़िम आपस में अनुमान लगाते हैं कि अमुक या अमुक ने ईर्ष्या और द्वेष में उन ग़ुंडों को भेजा होगा।
बर्दा फ़्रोश
नारी की अनादिकालीन बेबसी, मजबूरी और शोषण की कहानी। माई जमी ने बर्दा-फ़रोशी का नया ढंग ईजाद किया। वो किसी ऐसे बुड्ढे को तलाश करती जो नौजवान लड़की का इच्छुक होता और फिर रेशमाँ को बीवी के रूप में भेज देती। रेशमा चंद दिन में घर के ज़ेवर और रुपये पैसे चुरा कर भाग आती और नए गाहक की तलाश होती। लेकिन चौधरी गुलाब के यहाँ रेशमाँ का दिल लग जाता है और वो जाना नहीं चाहती। माई जमी बदले की भावना से पुराने गाहक या शौहर करम दीन को ख़बर कर देती है और वो आकर गुलाब चंद को सारी स्थिति बताता है। गुलाब चंद आग बबूला होता है। मिल्कियत के अधिकार के लिए दोनों में देर तक मुक़ाबला होता है। आख़िर दोनों हाँप कर इस बात पर सहमत हो जाते हैं कि आपस में लड़ने के बजाय लड़ाई की जड़ रेशमाँ का ही काम तमाम कर दिया जाये। ठीक उसी वक़्त टीले के पीछे से माई जमी नुमूदार होती है और दोनों को इस बात पर रज़ामंद कर लेती है कि दोनों का लूटा हुआ पैसा वापस कर दिया जाये तो वो रेशमाँ को छोड़ देंगे। दोनों राज़ी हो जाते हैं और फिर वो दोनों जो चंद लम्हे पहले एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे, बे-तकल्लुफ़ी से मौसम और मंहगाई पर बात करने लगते हैं।
ग़ाज़ी मर्द
मस्जिद के इमाम साहब की एक बेटी है। दीनदार और पाकबाज़, लेकिन ना-बीना। मरने से पहले इमाम साहब गाँव वालों को उसकी ज़िम्मेदारी दे जाते हैं। इमाम साहब की मौत के बाद गाँव में एक पंचायत होती है और नौजवानों से उस नाबीना लड़की से शादी करने के बारे में पूछा जाता है। उन नौजवानों में से एक हट्टा-कट्टा खू़बसूरत नौजवान, जिसे कई ओर लोग अपना दामाद बनाना चाहते हैं उससे शादी कर लेता है। घर के कामकाज के लिए एक लड़की रहमते को रख लेता है। लड़की ना-बीना को सारी बातें बताती रहती हैं। एक दिन वह बताती है कि उसके शौहर की एक खू़बसूरत लड़की से मुलाक़ात हुई है। इससे उसके मन में शक होता है और उस शक को दूर करने के लिए वह जो करती है वही उस नौजवान को एक ग़ाज़ी मर्द बना देता है।
फ़रार
फ़रार दर-अस्ल एक संवेदनशील लेकिन बुज़दिल इंसान की कहानी है। मामूँ जो इस कहानी के मुख्य पात्र हैं, स्वभावतः सुस्त और आराम-पसंद हैं, इसी वजह से वो मैट्रिक का इम्तिहान भी न पास कर सके। नुमाइश में जो लड़की उन्हें शादी के लिए पसंद आती है उसके वालिद शादी के लिए तीन शर्तें रखते हैं, अव्वल ये कि उनका दामाद ख़ूबसूरत हो, दोयम कम अज़ कम ग्रेजुएट हो और तीसरे ये कि दो लाख मेहर देने की हैसियत रखता हो। मामूँ ने ये चैलेंज क़बूल कर लिया। भाईयों ने अपनी-अपनी जायदाद बेचने का फ़ैसला किया और मामूँ ने तीन साल में ग्रेजुएट बन कर दिखा दिया, लेकिन शादी के दिन ठीक निकाह के समय वो शादी हॉल से फ़रार हो जाते हैं।
चक्कर
नौकरों के साथ अमानवीय व्यवहार और उनके शोषण की कहानी है। सेठ छन्ना मल अपने मुंशी चेलाराम को भरी गर्मी में दसियों काम बताते हैं। चेलाराम दिन-भर लू के थपेड़े और भूख-प्यास बर्दाश्त करके जब वापस लौटता है तो छन्ना मल अपने दोस्तों के साथ ख़ुश गप्पियों में व्यस्त होते हैं और उनके एक दोस्त आवागवन की समस्या पर अपने विचार प्रकट कर रहे होते हैं। सेठ छन्ना मल चेलाराम की तरफ़ कोई ख़ास ध्यान नहीं देते और वो अपने घर लौट आता है। घर के बाहर वो चारपाई पर लेट कर अपने पड़ोसी को देखने लगता है जो अपने घोड़े को चुम्कार कर प्यार से मालिश कर रहा है। चेलाराम की बीवी कई बार खाना खाने के लिए बुलाने आती है लेकिन वो निरंतर ख़ामोश दर्शन में लीन रहता है। शायद वो आवागवन की समस्या पर विचार कर रहा होता है, शायद वो ये सोच रहा होता है कि उसका उगला जन्म घोड़े की जून में हो।
बंदर वाला
माँ-बाप अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए किस तरह बच्चों से उनका बचपन छीन लेते हैं, इस कहानी में उसका चित्रण है। मिस्टर शाह एक बड़े पद पर हैं। आए दिन लोगों की दावतें करते हैं जिससे ये ख़्याल होता है कि वो बहुत ही सुशील व मिलनसार हैं लेकिन अस्ल में उस दावत के बहाने उन्हें अपने चार साल के बच्चे की नुमाइश करना होती है जिसे उन्होंने ग़ालिब के अश्आर समेत बहुत कुछ पढ़ा सिखा रखा है। वो जापानी जूडो भी जानता है। लेखक ने उस बच्चे को बंदर और मिस्टर शाह को बंदर वाले की उपमा दी है। जिस तरह बंदर वाले को अपना तमाशा दिखाने के लिए डुगडुगी का सहारा लेना पड़ता है उसी तरह मिस्टर शाह को दावतों का।
तिनके का सहारा
शांत स्वभाव और मिलनसार मीर साहब के अचानक देहांत से मोहल्लावासी उनकी ग़रीबी से परिचित होते हैं और ये तय करते हैं कि सय्यद की बेवा और उनके बच्चों की परवरिश सब मिलकर करेंगे। चार साल तक सब के सहयोग से बच्चों की परवरिश होती रही लेकिन फिर हाजी साहब का हद से बढ़ा हुआ हस्तक्षेप सबको खलने लगा क्योंकि ये ख़्याल आम हो गया था कि हाजी साहब अपने बेटे की शादी बेवा की ख़ूबसूरत बेटी से करना चाहते हैं। बेवा की बेटियाँ जो हाजी साहब के घर पढ़ने जाया करती थीं उनका जाना भी स्थगित हो गया और मोहल्ले की मस्जिद के इमाम साहिब बच्चीयों के शिक्षक नियुक्त हुए। इमाम साहब ने एक दिन मोहल्ले के संजीदा लोगों के सामने बेवा से शादी का प्रस्ताव रखा और फिर एक हफ़्ता बाद वो बेवा के घर अपने थोड़े सामान के साथ उठ आए। अगले दिन जब नियमानुसार दूध बेचने वाले का लड़का दूध देने आया तो इमाम साहब ने उससे कहा, मियाँ लड़के, अपने उस्ताद से कहना वो अब दूध न भेजा करें, हमें जितने की ज़रूरत होगी हम ख़ुद मोल ले आएँगे, हाँ कोई नज़र नियाज़ की चीज़ हो तो मस्जिद भेज दिया करें।
दो तमाशे
मिर्ज़ा बिरजीस क़दर आर्थिक रूप से विपन्न परिवार के चशम-ओ-चिराग़ हैं। यद्यपि वो अंदर से खोखले हो चुके हैं लेकिन सामाजिक रूप से अपनी बरतरी बरक़रार रखने के लिए ऊपरी दिखावा और कठोर स्वभाव को ज़रूरी समझते हैं। वो अपनी कार में बैठ कर जूतों की ख़रीदारी करने जाते हैं और दुकान के मुलाज़िम को ख़्वाह-मख़ाह डाँटते फटकारते हैं। इसी बीच एक अंधा बूढ़ा फ़क़ीर भीख मांगने आता है जिसे मिर्ज़ा बिरजीस क़दर डपट कर भगा देते हैं, क्योंकि उनकी जेब में पैसे ही नहीं होते हैं। एक दिन जब वो एक फ़िल्म देख रहे होते हैं जिसमें भीख मांगने का सीन आता है तो मिर्ज़ा बिरजीस क़दर की आँखों से आँसू जारी हो जाते हैं।
एक दर्दमंद दिल
नौजवानों के ख़्वाबों की शिकस्त और नौकरी का संकट इस कहानी का विषय है। फ़ज़ल अपने वालिद की इच्छा पर लंदन में क़ानून की शिक्षा प्राप्त कर रहा है लेकिन देश सेवा की भावना से सरशार फ़ज़ल का दिल क़ानून की शिक्षा में नहीं लगता है। ज़ेहनी तौर पर फ़रार हासिल करने के लिए वो डांसिंग का डिप्लोमा भी कर लेता है। इत्तेफ़ाक़ से उसे एक लड़की रोज़ मैरी मिल जाती है जो देश सेवा की इस भावना से प्रभावित हो कर उसकी सहयोगी बनने की इच्छा प्रकट करती है। फ़ज़ल तुरंत घर तार देता है कि वो क़ानून की शिक्षा छोड़कर वतन वापस आ रहा है और उसने शादी भी कर ली है। बंदरगाह पर उसे घर का मुलाज़िम एक ख़त देता है जिसमें वालिद ने उससे अपनी असंबद्धता प्रकट की थी। एक महीने तक दोनों एक होटल में ठहरे रहते हैं। इस दौरान इंतिहाई भाग दौड़ के बावजूद फ़ज़ल को कोई मुनासिब नौकरी नहीं मिल पाती है और आख़िर एक दिन वो डांसिंग रुम खोल लेता है। उसको देखकर रोज़ मेरी के चेहरे का रंग फ़क़ हो जाता है तो फ़ज़ल उससे कहता है, आख़िर ललित कला की सेवा भी तो राष्ट्र सेवा ही है ना।
सुर्ख़ जुलूस
अपने अधिकारों के लिए पिछड़े वर्ग के जागरूकता की एक दिलचस्प कहानी है। अमरीकी औरत मिस गिलबर्ट हिंदुस्तान मात्र इस उद्देश्य से आती है कि उसे यहाँ के आंदोलनों, सत्याग्रह और जलसे जुलूस को देखने का शौक़ था। लेकिन आज़ादी के तुरंत बाद ये सारे हंगामे ख़त्म हो चुके थे, जिस कारण वो उदास रहती थी। होटल के अस्सिटेंट मैनेजर का दोस्त रियाज़ गिलबर्ट की उदासी दूर करने के उद्देश्य से अपनी प्रतिभा से एक निर्जन क्षेत्र में फ़र्ज़ी जुलूस का आयोजन करता है। साईसों का ये जुलूस गिलबर्ट एक फ़्लैट की बालकनी पर बैठ कर देखती है। आनंदित हो कर वो साईसों की मदद के लिए चैक काट कर रियाज़ को देती है। एक सप्ताह बाद शहर के बीचो-बीच हज़ारों की तादाद में साईस असल जुलूस निकालते हैं जो रियाज़ ही का लिखा हुआ गीत गा रहे होते हैं लेकिन रियाज़ और उसका दोस्त गिलबर्ट से उस जुलूस का तज़किरा तक नहीं करते हैं।
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बाल-साहित्य1894
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